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प्राकृत व्याकरणशास्त्र का उद्भव एव विकास १६५
हैं। गाहासत्तसई, तरगवती, ५७मचरिय, पसुदेव हिण्डी आदि प्राचीन काव्यो की भाषा महाराष्ट्री प्राकृत है । गुणाढ्य की बृहत्कथा पैशाची मे निवद्ध थी। इस तरह ईसा की तृतीय शताब्दी तक प्राकृत भाषा के कई रूप प्रचलित थे। उनमे कुछ सामान्य नियम भी व्याकरण की दृष्टि से निश्चित हो चुके थे, जैसा कि इन ग्रन्यो की भाषा को देखने से पता चलता है। भले ही लिखित रूप मे प्राकृत का कोई व्याकरण ग्रन्थ उस समय प्रचलित न रहा हो, किन्तु सामान्य व्याकरणशास्त्र के अनुसार विभिन्न प्राकृत अनुशासित होकर साहित्य में प्रयुक्त होती रही होगी। यद्यपि कुछ अपवाद भी उपलब्ध होते है, जो प्राकृत के लोक भाषा होने के कारण हैं। सभवत लोकभापा की विश्रुति के कारण ही बहुत समय तक प्राकृत का व्याकरण लिखने की आवश्यकता अनुभव न की गयी होगी। किन्तु ईसा की द्वितीय या तृतीय शताब्दी तक प्राकृत का व्याकरण अवश्य अस्तित्व में आ गया होगा । अन्यथा इस समय के प्राकृत साहित्य की भापा इतनी व्यवस्थित न होती।
प्राकृत व्याकरण के सिद्धान्त प्राकृत के जितने व्याकरण आज उपलब्ध है वे सब सस्कृत मे लिखे गये हैं। हो सकता है कि प्रारम्भ मे कोई व्याकरण प्राकृत भाषा मे भी लिखा गया हो, किन्तु आज उपलब्ध नही है । आगम ग्रन्थो मे अवश्य प्राकृत भाषा मे व्याकरण के कुछ नियमो का उल्लेख है। कुल सन्दर्भ इस प्रकार है
आचारागसूत्र मे एकवचन, द्विवचन एव बहुवचन, स्त्रीलिंग, पुल्लिग एक नपुसकलिंग तथा वर्तमानकाल, भूतकाल एव भविष्यत्काल के वचनो का उल्लेख है। यथा ___ समियाए सजए भास मासेज्जा, त जहा एगवयण, दुवयण, बहुक्यण, इत्थीवयण, पुरिसवयण, णपुसावयण अणागययण, पच्चक्खवयण, परोक्खवयण ॥
आधारचूला, ४ १ सूत्र ३ स्यानागसूत्र मे आठ कारको का सोदाहरण निरूपण है । यथा
अटुविधा वयणविभत्ती पण्णता, त जहा णिद्देसे पढमा होती, वितिया उयएसणे । ततिया करणमि कत्ता, चउन्थी सपदावणे ॥१॥ પત્રમી વાવાળે, છઠ્ઠી સસ્તામવાળે ! सत्तमी सण्णिहोणत्थे, अट्ठमी आमतणी भवे ।।२।। तत्थ पढमा विभत्ती, णिसे-सो इमो अह वत्ति । वित्तिया उण उवएसे भण कुण व इम व त वत्ति ।।३।।