________________
भिक्षु शब्दानुशासन का तुलनात्मक अध्ययन १८७
दी जायेगी तो वहां पाणिनि के अनुसार वैकल्पिक डीष् होकर "उपाध्यायी और उपाध्याया" ये रूप बनेंगे |
भिक्षुशब्दानुशासन मे स्वयं अध्यापिका अर्थ मे डीप का विधान नही है । इसलिये उक्त अर्थ मे यहाँ केवल "उपाध्याया" यह प्रयोग बनेगा ।
१०. नोत ४।१।१२ ( भिक्षुशब्दानुशासन )
उकारान्त धातु से विहित जो यड, प्रत्यय होता है, उसका लोप नही होता यदि अच् प्रत्यय पर मे रहे । उदाहरण के लिये रोरूप, लोलूप' इत्यादि प्रयोगो को लिया जा सकता है |
पाणिनि मे अच् प्रत्यय पर मे रहने पर यड् का लोप होता ही है । "नोत" जैसा सूत्र पाणिनि में नहीं है। इसलिये इस मत के अनुसार "लोलुव और पोपुव " रूप बनेंगे ।
११ हितसुखाभ्याम् २।४।७२ ( भिक्षुशब्दानुशासन )
हित और सुख के योग मे चतुर्थी विभक्ति विकल्प से होती है | ग्रामस्य ग्रामाय वा हितम् ।
पाणिनि मे "हितयोगे च" इस वार्तिक से केवल हित के योग मे चतुर्थी विहित है और वह भी नित्य ही विहित है । सुख का इसमे उल्लेख नही है |
इन कतिपय उदाहरणो के द्वारा पाणिनि और भिक्षुशब्दानुशासन का पारस्परिक महत्वपूर्ण पार्थक्य दिखलाया गया। इस प्रकार के पार्थक्यों की सख्या बहुत है, जिनका विवेचन स्वयं मे एक पुस्तक हो सकता है । अत विस्तार के भय से इस प्रकरण को यही स्थगित किया जाता है ।
બાપાયે તેવનસ્ત્રી તે પાિિન અષ્ટાધ્યાયી જો બાધાર માના ઔર સે पञ्चाध्यायी मे परिवर्तित कर दिया । धातु, प्रातिपदिक, प्रत्यय, समास और विभिन्न सज्ञायें यत्किञ्चित् परिवर्तन के साथ स्वीकार कर ली गई । जैसे
पाणिनि
जैनेन्द्र
ધોતુ
अधिकरण
करण
अपादान
विभक्ति
धु
अधिकरण
करण
પાવાન
विभक्ती
इस प्रकार सारी समानताओ के साथ जैनेन्द्र व्याकरण मे बाध्यबाधक भाव की प्रणाली भी वही अपनाई गयी जो पाणिनि व्याकरण मे प्रचलित है । पाणिनि का पूर्वसासिद्धम्” ८२१ सूत्र तथा तत्सम्बद्ध असिद्ध प्रकरण "जैनेन्द्र मे ययावत् स्वीकृत है । विना किसी परिवर्तन के पूर्वतासिद्धम् " ५।३।२७ सूत्र यहा स्वीकार