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________________ १८० . सस्कृत-प्राकृत व्याकरण और कोश की परम्परा को आवश्यक समझा और इस कार्य के लिये इन्होने बारह भूत्रों का प्रणयन किया। पाणिनि व्याकरण मे एक शेप के लिये नौ सूत्र है। शाकटायन ने पाणिनि के वातिको को मूत्र का रूप देकर यह संख्या वारह कर दी है। भिशब्दानुशासन एक शेप की आवश्यकता का अनुभव करता है । इसका पहला एक शेप विधायक सूत्र "स्यानावसंख्यय" ३१११३५ है। जमा कि पहले संकेत किया जा चुका है कि किसी भी व्याकरण की सर्वाङ्गपूर्णता के लिये उसका धातुपाठ, गणपाठ, लिंगानुशासन, शिक्षा तथा उणादि सूत्र आवश्यक समझे जाते है। पाणिनि व्याकरण मे ये सारी वात उपलब्ध हैं। इनमे लिंगानुशासन, धातुपा० तथा गणपा० के पाणिनि कत करव मे किसी की विप्रतिपत्ति नही है किन्तु पाणिनि शिक्षा और उणादि मूत्रो के सम्बन्ध मे विद्वानो मे मतभेद है। शिक्षा का पाणिनि द्वारा रचित न होने का कारण यह प्रतीत होता है कि इसका पहला श्लोक अथ शिक्षा प्रवक्ष्यामि पाणिनीय मतं यथा। शास्त्रानुपूर्व तद् विधात् यथोक्त लोकवेदयो । है । इसमें पाणिनीय मतानुसार शिक्षा का निरूपण करने का कहा गया है । पाणिनि स्वय के लिए ऐसा प्रयोग नहीं करते । साथ ही शिक्षा के अन्त मे दो वार पाणिनि को नमस्कार भी किया गया है, जो पाणिनि के द्वारा सभव नही है। इसलिए बहुत सभव है कि पाणिनि परम्परा के किसी विद्वान् ने शिक्षा को पीछे से इसमे जोड दिया है। ___उणादिसून जो पञ्चपादो मे विभक्त है तथा जिनकी संख्या ७५५ है, के विषय मे विद्वानो मे 46। मतभेद है। पाणिनि ने "उणादयोवलम्" सूत्र का उल्लेख किया है। जनेन्द्र ने उसे उसी प्रकार उद्धत किया है। शाकटायन ने "उणाय" मूत्र बनाया तथा इसमे वहुलम् की अनुवृत्ति स्वीकार की। इन दोनो व्याकरणो मे सिद्धान्तकौमुदी के उणादि प्रकरण के प्रथम सूत्र "कृवायोजिम स्वदिसाध्यशून्य उण" सूत्र के उदाहरण प्रस्तुत किये गये है। भिक्षुशब्दानुशासन उणादि के सम्बन्ध मे जनेन्द्र और शाकटायन से आगे है। भट्टीजिदीक्षित की मिहान्त कौमुदी मे जिस प्रकार पूर्व और उत्तर कृदन्त के मध्य में णादि प्रकरण है, उसी प्रकार भिक्षुशब्दानुशासन की प्रवेशिका "कालु कौमुदी" मे पूर्व और उत्तर कृदन्त के मध्य मे शादिप्रकरण को रखा गया है । कौमुदी वाले इणादि सूत्रों में पांच पाद है किन्तु भिशब्दानुशासन मे उणादि के पार पाद है। उसे देखने से विदित होता है कि जिस सरलीकरण की पद्धति का अवलम्वन १. भिक्षादानुशासन के अन्य सूत्रो की रचना हुई है, वही पद्धत मादि मुन्नी के निा भी अपनाई गई है। दो उदाहरणो में इस बात को स्पष्ट किया जा सकता है
SR No.010482
Book TitleSanskrit Prakrit Jain Vyakaran aur Kosh ki Parampara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandanmalmuni, Nathmalmuni, Others
PublisherKalugani Janma Shatabdi Samaroha Samiti Chapar
Publication Year1977
Total Pages599
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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