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________________ १७२ सस्कृत-प्राकृत व्याकरण और कोश की परम्परा पाणिनि सूत्र "छोऽटि' ५२ कात्यायन वार्तिक है "छत्वममीति वाच्यम्"। शाकटायन ने इस आधार पर "५५छोऽमि" सून ही बना डाला। शाकटायन ने कतिपय सूत्र अपने व्याकरण मे जैसे के तैसे गृहीत किये हैं। पाणिनि शाकटायन १ तेस्रय स्त्रय २ पूर्वकालकसर्वजरत्पुराणनव पूर्वकालकसर्वजरत्पुराण केवल समानाधिकर नवकेवलम् ३ वृन्दारकनागकुजरे पूज्यमानम् वृन्दारकनागकुर ४ कतरकतमौ जातिपरिप्रश्ने कतरकतम जाति परिप्रश्ने ५ यावदवधारणे यावदवधारणे पाणिनि पूर्ववर्ती शाकटायन निश्चित ही एक प्रौढ वैयाकरण हैं, किन्तु उनकी __ कोई भी कृति पाणिनि के समय थी, यह अमदिग्ध रूप से नही कहा जा सकता। पाणिनि ने अपनी सूक्ष्मेक्षिका द्वारा जिस अण्टाध्यायी का निर्माण किया, वह विश्ववाड्मय मे अनुपम है । ऐतिहासिक तथ्यों के साक्ष्य पर पाणिनि पाचवी शती विक्रम पूर्व मे हुए थे। इसके अनन्तर एक हजार वर्ष तक की अवधि मे कात्यायन के वातिक तथा पतञ्जलि के महाभाष्य के अलावा कोई भी स्वतन्त्र व्याकरण अन्य नही लिखा गया । बौद्ध और जैन विद्वान्, क्रमश पालि और प्राकृत जिनके धामिक वाड्मय की, धर्म की भापाए थी उनका ध्यान जब सस्कृत की ओर गया और उसकी व्यापकता तया अर्याभिव्यक्ति-क्षमता का उन्हें पता लगा तो उन्होंने इसे अपने व्यवहार के लिए अपनाया। कनिक के समय अश्वघोष ने अपने काव्य की रचना संस्कृत मे की, यह वात ऐतिहासिको से तिरोहित नहीं है। इसी पृष्ठभूमि मे वो विद्वान् चन्द्रगोमी ने तथा जैन विद्वान् आचार्य देवनन्दि ने अपने अपने व्याकरणो की रचना की। चान्द्र व्याकरण तो आजकल उपलब्ध नही है पर जनेन्द्र व्याकरण सर्वत्र उपलब्ध है। पाणिनि के बाद व्याकरण निर्माण-परम्परा मे जनेन्द्र व्याकरण सर्वप्रथम है । इसका समय ईसा की पाचवी शती है। चान्द्र व्याकरण का भी समय यही है। प्रचलित शाकटायन व्याकरण नवमी शती तथा हेमशब्दानुशासन बारहवी शती पूर्ति की रचना है। इन सव ने स्वेच्छया तथा पूर्ण सौहार्द से पाणिनि व्याकरण की मूलसामग्री का आकलन अपने ग्रन्थो मे किया है। जनेन्द्र व्याकरण के अध्ययन से विदित होता है कि केवल स्वर और वैदिक प्रक्रिया को अपने लिये अनावश्यक समझ कर जनेन्द्र व्याकरणकार ने इन्हे तो छोड अवश्य दिया ५२ शेप पाणिनि सामग्री की अविकल रक्षा की। हेमशदानुशासन के बाद जैन सम्प्रदाय के आचार्य विशाल कातिगणि “વિશાળવાનુશાસન' તયા માયરિવૃત “માયશવાનુશાસન” જી નામ માતા है पर ये दोनो व्याकरण इस समय उपलब्ध नहीं हैं ।
SR No.010482
Book TitleSanskrit Prakrit Jain Vyakaran aur Kosh ki Parampara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandanmalmuni, Nathmalmuni, Others
PublisherKalugani Janma Shatabdi Samaroha Samiti Chapar
Publication Year1977
Total Pages599
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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