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१५६ : सरकृत-प्राकृत व्याकरण और कोग की परम्परा
२८. आसन्नगधिकाध्यर्धार्धादिपूरण द्वितीयाधन्याय ३।१।१२६
अध्ययं विशा, अर्ध पचम विशा । पाणिनीय मे इस मूत्र में होने वाले शब्दो मे अध्यर्ध और अब ये दो शब्द नहीं हैं, इसलिए वहां इनके
साथ समास नहीं होता। २६ मासर्तु भ्रातृनक्षत्राण्यानुपूव्र्येण ३।१।१८२
मास, ऋतु आदि शब्दो का द्वद्व ममाममे अनुपूर्व मे निपात होता है। फाल्गुनचैत्री, वैशाखज्येष्ठौ । पाणिनीय इनमे भास वाचि शब्दो मे यह
क्रम स्वीकार नहीं करता। ३० सख्या समासे ३।१।१८६
समास मात्र मे सख्यामओ को अनु पूर्व से प्राक निपात करता है। द्वित्रा , विचतुरा ।
पाणिनीय मे यह सूत्र नहीं है। ३१ ओजोजोम्भ महस्तपस्तमस्तृतीयाया ३३१११२
इन शब्दो से आगे उत्तरपद हो तो उनकी तृतीया विभक्ति का लोप नही होता । मोजसा कृतम्, तपसा कृतम् । पाणिनीय तपसा कृतम्
रूप को स्वीकार नहीं करता। ३२ अपाययोनिमतिचरेपु ३।२।२८
अप् शब्द से परे य, योनि, मति और चर शब्द हो तो सप्तमी विभक्ति का लुक नही होता । पाणिनीय मे भति और पर शब्द इस अर्थ मे ग्रहण नहीं किए गए है। इसलिए अप्सुमतिः, अप्युचर ये दो रूप
पाणिनीय मे नही बनते । ३३ वर्षक्षरावराप्सरउरो मनसो जे ३।२।२६
ज उत्तर पद मे हो तो इन शब्दो की सप्तमी विभक्ति का लोप विकल्प से होता है। वर्षेज वर्पज ।
पाणिनीय अ५, सरस्, उरस, मनस् इतने शब्दो से सप्तमी का लोप विकल्प से नही मानत।। ३४. प्रावृड्वशिरत्कालदिव ३।२।२७
प्रावृष्, वर्पा, २॥ रत्, काल और दिन शब्दो से परे ज शब्द उत्तर पद मे हो तो इन शब्दो की सप्तमी विभक्ति का लोप नही होता । पाणिनीय मे वर्षा २१०८ ग्रहण नही किया गया है। उनके अनुसार वर्षासुज
रूप नही बनता । ३५ शुन पपुच्छलाङ्ग लेषु सज्ञायाम् २।३।३५
वन् शब्द की पठी विभक्ति का लुक नहीं होता, यदि उत्तर पद मे शेप आदि शब्द हो और यदि उससे सज्ञा का अर्थ निकलता हो।