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१३६ सस्कृत-प्राकृत व्याकरण और कोश की परम्परा
अध्याय ७ अस्य सजातम्, अस्य भाव फर्म वा, अनेनास्यान वाऽस्त्यर्यविहितप्रत्ययसवन्धी गण।
अध्याय ८ आख्यात-कृदाश्रितप्रत्ययसम्बन्धी गण।।
कुछ गणशब्दो का पाठ ग्रन्थकार ने किसी पूर्ववर्ती आचार्य विगेप के मतानुसार किया है, जैसे केदारादि गण मे पठित शब्द वामनाचार्य के मतानुसार लिए गए है
केदारादी राजराजन्यवत्सा उष्ट्रोरभ्रौ वृद्धयुक्तो मनुष्य ।
उक्षा ज्ञेयो राजपुनस्तयेह केदारादौ वामनाचार्यदृष्टे ।। (४।२५८) किन्ही गणो के सन्दर्भ मे आचार्य विशेष का नाम न लेकर उन्हे वुध या विबुध मतानुसार माना गया है। जैसे कुण्डादि-पानादि, ज्योत्स्नादि गण द्रष्टव्य है
५लेपद्रव्ये खलो लक्ष्यो विदारशमोपधौ । दूत संदेशहारिण्या कुट्टिन्या शम्भलो वुधै ।। (१९५७) । ज्योत्स्नाशब्दस्तमित्रा च कुतु५ स्याद् विपादिका। विसो नखरश्चापि कुण्डलोऽपि मतो बुध ॥ (७।४१६) । दण्डार्ध मेधामुसलानि मेयो वधोदकेमा मधुपर्कयुक्ता । युग कशासौ पितृदेवता च दण्डादिरेव विवुधै प्रणीत ।। (६।३७१)। लोम वस्तु मुनि को गिरिवधू हरि कपि ।
लोमादी विवुधया रू रोम तथा भुरु ॥ (७।४।२१)। ग्रन्थ मे उपसर्गों के लिए न तो स्वतन्त्र 'प्रादि' गणपठित है तथा न उन शब्दो का पा० 'चादि' या 'स्वरादि गण मे किया गया है। इसका कोई उचित समाधान प्राप्त नही होता । कादि, लोहितादि, सुखादि' कुछ गण भिन्न-भिन्न प्रत्ययो के लिए दो-दो बार पढे गए है, जैसा कि पाणिनीय गणपा० मे भी देखा जाता है। गणपठित शब्दो का विवरण तथा औचित्यादि स्थिर करने के लिए ग्रन्थ पर स्वतन्त्र अनुसन्धानकार्य अपेक्षित है। सामान्यतया यह विश्वासपूर्वक कहा जा सकता है कि सस्कृत-व्याकरण के क्षेत्र मे गणरलमहोदधि ही एक ऐसा प्राचीन ग्रन्थ है जो गणवन्धी प्रामाणिक सूचनाएँ प्रस्तुत करता है।
२ गणरत्नमहोदधि स्वीपज्ञवृत्तिः ।
वि० स० ११६७ मे स्वरचित गणरत्नमहोदधि के गणशब्दो का सुखपूर्वक बोध कराने के उद्देश्य से आचार्य वर्धमान ने स्वीपज्ञ वृत्ति की रचना की है। स्वय अन्यकार ने इसे कण्ठत स्वीकार किया है
સુલેનૈવ બહીષ્યન્તિ મારત્નાનિ જા ઉછતા !
वृत्ति साऽऽरभ्यते स्वीयगणरत्नमहोदधे ॥१।। यद्यपि अन्यकार ने इसकी रचना का समय नही लिखा है तयापि वि० स० ११६७