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१२८ सस्कृत-प्राकृत व्याकरण और कोश की परम्परा
कहा जाता है। इसकी एक हस्तलिखित प्रति बीकानेर के कृपाचन्द्रसूरि-ज्ञान भण्डार मे, दूसरी प्रति अहमदाबाद मे है। सिद्ध हेमचन्द्र तथा पाणिनि के भी मतो का इसमे समादर किया गया है । अधोशित परिचय के आधार पर नयसुन्दर ने सारस्वत व्याकरण पर वात्तिको की भी रचना की थी।
ग्रथिता नयसुन्दर इति नाम्ना वाचकवरेण च तस्याम् । सारस्वतस्थिताना सूत्राणा पात्तिक लिखत् ।।३७।। श्रीसिद्धहमपाणिनिसम्मतिमाधाय सार्थका लिखिता । ये साधव प्रयोगास्ते शिशुहितहेतवे सन्तु ।।३८॥
१३ विचिन्तामणि
अपलगच्छीय कल्याणसागर के शिष्य मुनि विनयसागर सूरि ने इसकी रचना पद्यो मे की थी। ग्रन्थकार ने इसका परिचय स्वयं इस प्रकार दिया है
श्रीविधिपक्षगच्छेशा सूरिकल्याणसागरा । तेपा शिष्यवराचार्य सूरिविनयसागरै ॥२४॥ સારસ્વતસ્ય ભૂવાળા પદ્યવર્ધીવિનિમિત !
विचिन्तामणिग्रन्थ कपा०स्य हेतवे ॥२५॥ वि० स० १८३७ मे लिखी गई ५५तो की प्रति लालभाई दलपतभाई भारतीय संस्कृति विद्यामन्दिर, अहमदाबाद मे सुरक्षित है।
१४ श०६प्रक्रियासाधनी ___ आचार्य विजयराजेन्द्रसूरि ने २०वी शताब्दी मे इसकी रचना की थी, इसका उल्लेख उनके जीवनचरितसम्बन्धी लेखो मे किया गया है (जनसाहित्य का वृहद् इतिहास, भाग ५)।
१५ शब्दार्थचन्द्रिका
विजयानन्द के शिष्य हसविजयगणि ने अत्यन्त साधारण इस टीका को बनाया था। इसका अन्य परिचय प्राप्त नहीं है, केवल स० १७०८ मे ग्रन्यकार के विद्यमान होने का उल्लेख युधिष्ठिर मीमासक ने किया है सस्कृत व्याकरणशास्त्र का इतिहास, भाग १, पृ० ५७५ ।
१६ सारस्वतटीका
मुनि सत्यप्रवोध ने सारस्वतव्याकरण पर एक टीका लिखी थी, इसका रचनाकाल अज्ञात है। पाटन और लीवडी के भण्डारी मे इसके हस्तलेख प्राप्त होत है।