________________
१३० संस्कृत-प्राकृत व्याकरण और कोश की परम्परा
प्रति चतुर्भुज जी के भण्डार मे सुरक्षित है । युधिष्ठिर मीमासक ने सस्कृतव्याकरण शास्त्र का इतिहास, भाग १ मे सहजकीति द्वारा प्रणीत व्याख्या का नाम 'प्रक्रियावात्तिक' लिखा है। उनके लेखानुसार हेमनन्दनमणि के शिष्य सहजकीति थे । ग्रन्थकार ने रचनाकाल का निर्देश स्वय किया है
वत्सरे भूमिसिद्धयड्गकाश्यपीप्रमितिश्रिते । मावस्यशुक्लपञ्चम्या दिवसे पूर्णतामगात् ।।
२४ सारस्वतवृत्ति __ श्रीचतुरविजय जी के 'जनेतर साहित्य और जैन" लेख के सन्दर्भानुसार हर्षकातिसूरि ने एक वृत्ति को लिखा था। सम्भवत इस वृत्ति का नाम दीपिका था।
२५ सिद्धान्त रत्नम् ____ युधिष्ठिर मीमासक ने सारस्वत के रूपान्तरकारो मे जिनेन्द्र वा जिनरल का भी नाम गिनाया है। इसके अनुसार जिनरत्न ने यह टीका लिखी थी, जो बहुत अर्वाचीन मानी जाती है।
सिद्धान्त चन्द्रिकाव्याकरण पर टीकाएँ सारस्वत व्याकरण के रूपान्तरका रामाश्रम या रामचन्द्रश्रिम ने "सिद्धान्तचन्द्रिका" नामक एक विशद वृत्ति लिखी है। इसमे लगभग २३०० सूत्र है। मङ्गलाचरण मे दिए गए परिचय से इस वृत्ति को महाभाष्यकार पतञ्जलि के मत का पूर्ण अनुसरण करने वाली कहा जा सकता है मत वुवा पतलले इस सिद्धान्तचन्द्रिका पर खरतरगच्छीय जिनमक्तिसूरिशाखा के सदानन्दाणि ने 'सुबोधिनी' नामक एक महती वृत्ति की रचना की है। इसके अतिरिक्त ७ अन्य टीकाओ का भी उल्लेख प्राप्त होता है। इनमे सदानन्दमणिप्रणीत 'सुबोधिनी' टीका का विशेष परिचय प्रस्तुत कर ७ अन्य टीकाओ का सामान्य परिचय यह। दिया जाएगा।
૧ સુવોધિની
कृदन्तवृत्ति के अन्त मे रचनाकाल १७६६ वर्प लिखा है, इससे ग्रन्थ का रचनाकाल निश्चित ही है । ग्रन्थरचना का प्रयोजन यद्यपि स्पष्टतया उल्लिखित नही है तथापि 'कृरप्रकाशिका, सुधीभुदे' इन दो शब्दो के आधार पर अर्थ का स्पष्ट प्रकाशन एव बुधजनानुरजन को प्रयोजन माना जा सकता है