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________________ १२४ गग-II [ व्याण और न होने गे गुबोका, तथा अपति -- मागिता में नागपंगा प्रकाशन करने में दीपिका नाम भी रिदयं में अपने को नागपुरीय तपागच्छाधिराज गदाग कम आम्याग पर • Timi राज रत्नमूरि को नमार गिा। प्रनीता शिगजानगरिन र थे । युधिष्ठिर मीमामा संयोति को सोनिया विमान हर्षकीनि नाम गमगार शिष्य का , जि -प्रनिनितिन कार्य किया था । जंगाकि निगमाग प्रमागिन (३६१०) मा.न व्याकरण की प्रमानिकी नमानि पर लगानी - मुबांधिकाया जाया गरिबीच नीतिभिः । म्यादीना प्रक्रिया पूर्ण वभूबर मनो, ||१|| नेपामय दिनलियो गीत्या पाटप । निखनी चाया पर प्रीनिमम ||२|| म मरण के मन में व्याख्यान-अनि दी है... अनुमान राजरत्ननरि के अनन्तर चन्मगीति को उपद्रका गच्छाधिप नाराया। यह भी पाहा गया है कि चन्मीति ने यह टी श्रीपगन्द्र उपाध्याय की अभ्यर्थना पर की थी और महावीति ने लिया या.. तत्पटोदयण हनिमल बीजेगवाया .... नकार कनियादपंदमन श्रीरानप्रा । तत्पी जिनविश्ववादिनिया गजगाधिपा सम्प्रति मूरिश्रीप्रभ चन्द्र कीतिर पो गम्भीयं धश्रिया ॥६॥ तैरिय पाचन्द्राव्योपाध्यावाभ्यर्थनात् त।। शुभा मुंबोधिवानाम्नी श्रीगारस्वतदीपिका ॥७॥ श्रीचन्द्रकीतिमूरीन्द्रपादा मोजमधुव्रत । हर्पकोतिरिमा टीका प्रयमादर्शकऽलिसत् ।।८।। अन्यरचना के प्रामाणिक समय का उल्लेख प्राप्त नहीं होता, फिर भी युधिष्ठिर भीमासक द्वारा दर्शित समय १६वी शती पा। अन्त या १७वी शती का आर+भ मान्य प्रतीत होता है। ____ यद्यपि सारस्वत व्याकरण के तीन विगेपण दिए गए है स्वल्प, सिद्ध तथा सुबोधक । अत 'सुबोधक' व्याकरण पर 'सुवोधिका' जैमी टीकाओ के बनाने की कोई आवश्यकता मामान्यतया प्रतीत नही होती, फिर भी सूनो तथा टीकाओ की सुबोधकता मे पर्याप्त भिन्नता होती है, इसलिए श्रीचन्द्रकीति ने भी अपनी टीका द्वारा सुवोधक सूबो के भी विषय को सरलता से समझाने का प्रयास कर अपने ग्रन्थ की सार्थकता सिद्ध की है
SR No.010482
Book TitleSanskrit Prakrit Jain Vyakaran aur Kosh ki Parampara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandanmalmuni, Nathmalmuni, Others
PublisherKalugani Janma Shatabdi Samaroha Samiti Chapar
Publication Year1977
Total Pages599
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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