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संस्कृत व्याकरणो पर जैनाचार्यों की टीकाएं एक अध्ययन ११७
के वचनानुसार इसकी रचना महान् प्रयास से की गई है तथा समस्त प्रतिपक्षिप्रदशित आक्षेपो का सहेतुक समाधान किया गया है। नाटक के भरतवाक्य की तरह विश्वकल्याण की भावना से प्रेरित होकर लेखक ने अन्त मे यह भी कहा है कि इस सद्ग्रन्थ की रचना से मुझे प्राप्त होने वाला पुण्य तीनो दुखो का शमन करता हुआ मनुष्यों की प्रवृत्तिको मङ्गलमयी भावना या शिव की ओर उन्मुख कर
સહેતુકમિટ્ટારોલ લિવિત સોધુ સાતમ્ | कातन्त्रोत्तरनामाऽय विद्यानन्दापराऽऽदय । मान चास्य सहस्राणि स्वर्वद्यगुणिता रसा ॥ निर्माय सद्ग्रन्थमिम प्रयासान, आसादित पुण्यलवो मया य । तेन विदु खापहरो नराणाम् ,
ર્યાદ્ વિવેક શિવમવનાયામ્ | सूत्र-टीका-पलिका-पूर्वाचार्यानुमोदित वचनो की चर्चा के अतिरिक्त महाकवि आनन्दवर्धन द्वारा सामान्य विवक्षा में भी किए गए पुल्लिङ्ग प्रयोग का उल्लेख किया है। आनन्दवर्धन ने यह प्रयोग अपने अन्य देवीस्तवयम मे किया है। इस व्याकरण के चार नामो मे हेतु दिखाए गए है शावमिक, कातन्त्र, कालापक, कामार।
१२ कालापप्रक्रिया
नृपतिशिरोमणि रामसिंह की आज्ञा से क्षत्रिय बालको के बुद्धिवर्धनार्य आचार्य वलदेव ने इसे बूंदी मे स० १६०५ मे लिखा था। १२४ पत्रो का एक हस्तलेख जोधपुर मे प्राप्त है। ग्रन्थकार ने अपने गुरु का नाम आशानन्द बताया
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बाणखा केन्दुमिते (१९०५) विक्रमादित्यतो गते । वर्षेऽत्र रामसिंहाशाप्रेरितन द्विजेन वै॥ बलदेवेन रचिता कालापप्रक्रिया शुभा ।
ઉપદેશાત્ લુડો રાશાનન્દોથાત્ માથિયોતિ | सभी धातुओ पर पूर्णतया व्याख्यान करना सम्भव नही होता, क्योकि धातुए अनन्त तथा अनेकार्थक होती है, अत ग्रन्थकार ने सभी धातुओ पर व्याख्यान नही किया है
धातूनामप्यनन्तत्वान्नानार्यत्वा-५ सर्वथा।
अभिधातुमशक्यत्वादाख्यात व्यापनरत्नम् ।। १ ॥ आख्यात प्रकरण के अनन्तर कृरप्रकरण के लगभग २० ही सूत्रो की व्याख्या