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आचार्य हेमचन्द्र और पाणिनि ६७
आदित्य तथा पत्यन्त वहस्पति आदि शब्दो से वार्हस्पत्य आदि शब्दो की व्युत्पत्ति की है। हेम ने अनिदम्यवादे च दित्यदित्यादित्ययमपत्युत्तर पदा-ज्य ६।१११५ द्वारा नवप्रयुक्त याम्य शब्द की भी व्युत्पत्ति उक्त शब्दो के साथ प्रदर्शित कर पाणिनि की अवशिष्ट-पूर्ति की है।
पाणिनि ने गोधा शब्द से गोधेर , गौधार और गौघेय इन तीन तद्धितान्त रूपो की सिद्धि की है हेम ने भी गौधार और गौघेर की सिद्धि गोधाय। दुष्टणार च ६।३।८४ के द्वारा की है। पाणिनीय तन्त्र मे गौवार और गौधेर की सामान्यत: व्युत्पत्ति भर कर दी है अर्थात् गोधा के अपत्य अर्थ मे उक्त शब्दो का साधुत्व प्रदर्शित किया गया है। पर हेम ने आर्थिक दृष्टि से एक विशेष प्रकार की नवीनता दिलायी है। इनके तन्त्र मे ६।१।८१ के द्वारा निष्पन्न गौधार और गोधेर शब्द मात्र गोधा के अपत्यवाची ही नहीं है, किन्तु दुष्ट अपत्यवाची हैं।
पाणिनीय व्याकरण के अनुसार मनोरपत्यम् अर्थ मे अण् प्रत्यय कर मानव शब्द की सिद्धि की गयी है। हेम ने भी मानव शब्द की सिद्धि के लिए वही प्रयत्न किया है, किन्तु हेम ने इस प्रसग मे एक नवीन शब्द की उद्भावना भी की है। माणव कुत्यासाम् ६।१।६५ सूत्र द्वारा कुत्सित अर्थ मे मानव मे णत्व विधान कर मनोरपत्य मूढ माणव' की सिद्धि भी की है।
पाणिनीय तन्त्र मे सम्राज शब्द से तद्धितान्त भाववाची साम्राज्य शब्द तो बन सकता है, पर कर्तृवाचक नही। हेम ने साम्राज्य शब्द को कतृवाचक भी माना है, जिसका अर्थ है क्षत्रिय । इसकी साधनिका सम्राज क्षत्रिय ६।१।१०१ सूत्र द्वारा बतलायी गई है। अर्थात् पाणिनीय व्याकरण के अनुसार 'सम्राज भाव या सम्राज, कर्म' इन विग्रहो मे साम्राज्य शब्द निष्पन्न हो सकता है, जिसका अर्थ सम्राट् का स्वभाव या सम्राट् सम्बन्धी होगा। पर हेम के अनुसार सम्राज अपत्य पुपान्' इस विग्रह मे भी साम्राज्य शब्द बनता है, जिसका अर्थ होगा सम्राट की पुरुष सन्तान, इस प्रकार यहा यह देखा जाता है कि साम्राज्य शब्द के कर्तृवाचक स्वरूप की ओर या तो पाणिनि का ध्यान ही नही गया था अथवा उनके समय मे इसका प्रयोग ही नही होता था। जो भी हो, पाणिनि की उस कमी की पूर्ति हेम ने अपने इस तद्धित प्रकरण मे की है।
पाणिनीय शब्दानुशासन मे वस धातु से ति प्रत्यय करने पर वसति रूप बनता है, हेम के यहा भी वसति रूप सिद्ध होता है । इस वसति शव्द से राष्ट्र अर्थ मे अक और अण करने पर वासातक तथा वासात ये दो रूप बनते हैं। इन दोनो रूपो की सिद्धि के लिए हेम ने वसातेर्वा ६।२।६७ सूत्र की रचना की है, जिसके लिए पाणिनीयतन्त्र मे कोई अनुशासन नही है।
पाणिनि ने 'युति या यस्य' इस अर्थ मे बहुव्रीहि समास का विधान करने के बाद जाया के अन्तिम आकार को निड आदेश करने का नियमन किया है।