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आचार्य हेमचन्द्र और पाणिनि
व्य को भी मिलाकर 'रुच्या व्यथ्यवास्तव्यम्' ४|१|६ द्वारा नेपातनिक अनुशासन किया | हेम के ऐसा करने से यह लाभ हुआ है कि वास्तव्य की सिद्धि से अष्टाध्यायी के अभाव की पूर्ति तो हुई ही है, साथ ही कात्यायन की गौरवग्रस्त प्रक्रिया से बचाव भी हो गया है ।
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पाणिनि ने तव्य, तव्यत्, अनीयर्, यत् क्यप् और घ इन प्रत्ययो की कृत्य सज्ञा देने के लिए एक अधिकार सूत्र "कृत्या ३ १ ९५ की रचना की है, जिससे ण्वुल् के पहले आने वाले उपर्युक्त प्रत्यय कृत्य बोधक हो जाते है | हेम ने इससे भिन्न शैली अपनायी है । पहले उन सभी प्रत्ययो का उल्लेख कर देने के बाद 'ते कृत्या ' ५।१।४७ सूत्र के द्वारा यह स्पष्ट कर दिया है कि ऊपर के सभी प्रत्यय कृत्य कहे जाते हैं । ऐसा करने से इस सन्देह का अवसर ही नही आता कि आगे आने वाले कितने प्रत्यय कृत्य कहे जा सकते हैं । पाणिनि की अष्टाध्यायी का "कृत्या " सूत्र इस बात को स्पष्ट करने मे अक्षम है कि उसका अधिकार कहा तक रहे ? इसका स्पष्टीकरण उत्तरकालीन पाणिनीय वैयाकरणो के द्वारा ही हो सका है । नन्दिग्रहिपचादिभ्यो युणिन्यच ३ । १ । १३४ सूत्र से पाणिनि ने नन्द्यादि से अन् ग्रहादि से णिनि और पचादि से अच प्रत्यव का विधान किया है, किन्तु हेम ने इन तीनो प्रत्ययो के विधान के लिए पृथक्-पृथक् तीन मूत्र रखे हैं । अच्-विधाय अच् ५।१।४६ सूत्र, अन् - विधायक नन्द्यादिभ्योऽन: ५।१।५२ और णिन् -विधायक ग्रहादिभ्यो णिन् ५|१|१|५३ सूत्र है । हेम ने सरलता की दृष्टि रखकर तो विभाजन किया ही है, साथ ही अनुशासन शैली में मौलिकता भी स्थापित की है । यह स्पष्ट है कि अच् प्रत्यय - विधायक सूत्र का हेम ने सामान्यत उल्लेख किया है, इसमे एक बहुत बडा रहस्य है । नन्दादि एव ग्रहादि दोनो गणो मे पठित शब्द परिगणित हैं, इसी कारण पाणिनि ने भी पचादि को आकृतिगण माना है । आकृतिगण का मतलब यह होता है कि परिगणितो के सदृश शब्द भी उसी तरह सिद्ध समझे जायें | यहा पचादि को आकृतिगण मानने से पाणिनि का तात्पर्य यह है कि पचादिसबन्धी अच कार्य पचादि गण मे अनिर्दिष्ट धातुओ से भी सम्पन्न हो ।
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हेम व्याकरण मे जैसा कि - -ऊपर कहा जा चुका है कि सामान्य रूप से सभी धातुओ से अच् प्रत्यय का विधान माना गया है। इससे फल यह निकलता है कि पचादि का नाम लेकर उसे आकृतिगण मानने की आवश्यकता नही होती । इस शैली मे एक यह अडचन अवश्य होती है कि क्या सभी धातुओ के आगे अच् प्रत्यय लगे ? मालूम होता है कि विशेष रूप से अभिहित अण और णन् प्रत्ययो मे प्रकृति स्थलो को छोडकर सर्वत्र अच् प्रत्यय का अभिधान करना हेम को स्वीकार है । सभव है इनके समय मे इस तरह के प्रयोग किये जाने लगे होगे ।
पाणिनि ने नृ धातु से अतन् प्रत्यय विधान कर जर शब्द सिद्ध किया है,