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आचार्य हेमचन्द्र और पाणिनि : ६१
समास कुम्भ | ऊम् । कार मे होता है। उक्त समास स्थल मे पाणिनीय तन्त्र मे कुछ द्रविड प्राणायाम करना पड़ता है, किन्तु हेम ने 'डस्युक्त कृता' ३११४६ सूत्र द्वारा स्पष्ट अनुशासन कर दिया है । न समास विधायक न ३।११५१ सूत्र दोनो के यहा समान है।
पाणिनि ने द्विगु समास के लिए 'सख्यापुर्वो द्विगु.' सूत्र लिखा है, जिसकी त्रुटिपूर्ति कात्यायन ने समाहारे चायमिष्यते' कातिक द्वारा की है। इसी प्रकरण मे पाणिनि ने तद्धितार्थ, उत्तरपद और समाहार मे तत्पुरुष समास करने के लिए 'तद्धितार्थोनरपद समाहारे च' २।११५१ सूत्र लिखा है। हेम ने इस बृहत् प्रक्रिया के लिए एक ही 'सख्या समाहारे च द्वि[श्चानान्ययम' ३।११६६ सूत्र रखा है। प्राय: यह देखा जाता है कि जहा पाणिनि ने सक्षिप्त शैली को अपनाया है वहा हेम की शैली प्रसार प्राप्त है किन्तु उपयुक्त स्थल से हेम का सक्षिप्तीकरण २लाध्य है। यहा एक सबसे बड़ी विशेषता यह है कि यहा पाणिनीय तन्त्र में विस्तृत प्रक्रिया होने पर भी विश्लेषण नहीं हो पाया है । वहा हेम की सक्षिप्त शैली से भी पाठक को विषय समझते मे अधिक सरलता होती है।
पाणिनि ने चित्रा गावो यस्य स चित्तगु' मे बहुप्रीहि समास किया है किन्तु साथ ही चित्राओ मे कर्मधारय समास मानकर चित्रा का पूर्व निपात किया है। हेम ऐसे स्थलो से एकमात्र बहुव्रीहि समास मानते हैं, अत चित्रा पद की व्यवस्था के लिए 'तृतीयोक्त वा' ३।११५० सूत्र का पृथक निर्माण किया है। इससे ज्ञात होता है कि बहुव्रीहि मे विशेषण का पूर्व निपात करने के लिए पृथक नियम बनाना आवश्यक है क्योकि बहुव्रीहि समास स्थल मे विशेष्य-विशेषण पदो मे अलग-अलग ममास हेम के मत मे नही होता है। यदि होता तब तो पिता शब्द का पूर्व निपात हो ही जाता, किन्तु हेम ने सिद्धान्तानुसार बहुव्रीहि समास हो जाने के उपरान्त विशेष्य-विशेषण समास का निषेध हो जाता है पर इसमे यह सदेह नहीं रहता कि विशेषण का पूर्व निपात हो या विशेष्य का। इस सन्देह का निरसन करने के लिए हेम ने विशेषण का स्पष्ट रूप से पूर्व निपात करने का पृथक् विधान कर दिया है।
पाणिनि के उदीची उत्तरवासियो के मत मे 'मातरपितरौ' को शुद्ध माना है अर्थात् उसके अनुसार 'मातरपितरौ ? और मातापितरौ' ये दोनो प्रयोग होने चाहिए। हेम ने भी मातरपितर वा ३।२।४७ मे वैसा ही विधान स्वीकार किया है, परन्तु इनके उदाहरणो मे मतभिन्नता भी प्रकट होती है । पाणिनि ने द्वन्द्व समास की विभक्ति मे ही 'मातरपितर' रूप ग्रहण किया है। किन्तु हेम ने सभी विभक्तियो के योग मे 'मातरपितर' रूप ग्रहण किया है, जैसे-मातपितरयो
आदि। इससे ऐसा ज्ञात होता है कि हेम के समय मे मातर पितर, यह वैकल्पिक रूप सभी विभक्तियो के योग मे व्यक्त होने लगा था।