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८८ : सस्कृत-प्राकृत व्याकरण और कोश की परम्परा
टाप् और डीप आए है, अनन्तर डाप, डीन्, डीप और ती प्रत्यय आये है । हेभव्याकरण में दूसरे अध्याय के सम्पूर्ण चौथे पाद में स्त्री प्रत्यय समाप्त हुआ है। सुप् प्रत्ययो का समावेश न करके स्त्रिया नतो स्वस्थादेडी' २१४११ सूत्र मे ही 'स्त्रियाम्' ५द आया है जिसकी आवश्यकता स्त्रीत्व के ज्ञान के लिए है, हेम ने यही से स्त्रीत्व का अधिकार मान लिया है। पाणिनि ने ऋकारान्त और नकारान्त शब्दो से डीप् करने के लिए 'ऋन्नेभ्यो डीप्' ४१११५ अलग सूत्र लिखा है तथा 'न षट् स्वलदिभ्य' ४।२।१० द्वारा यहा डीप, टाप् का प्रतिपेध किया है। पाणिनि ने 'उगितरच' ४।१६ के द्वारा भवती, प्राची जैसे दो तरह के गब्दो का साधन कर लिया है, परन्तु हेम ने इसके लिए 'आवातूदृदित' ११४,२ और 'अच' ३।४१३ ये दो सूत्र बनाए है । अत्यन्त लाघवेच्छु हेम का यहा गौरव स्पष्ट है।
पाणिनि ने बहुप्रीहि समास सिद्ध शब्दो को स्त्रीलिंग बनाने के लिए प्राय बहुव्रीहि विषय के सामान्य सूतो की रचना की, लेकिन हेम यहा विशेष रूप से ही अनुशासन करते दिखाई पड़ते हैं । अशिशु से अशिपी बनाने के लिए 'अशिशो' २१४१८ सूत्र की अलग रचना है।
पाणिनि ने सर्वप्रथम स्त्री प्रत्यय मे 'अजाद्यतष्टाप' ४५११४ सूत्र लिखा है, हेम ने इस प्रकरणिका मे ही परिवर्तन किया है। हेम व्याकरण मे पहले डीप प्रत्यय का प्रकरण है, उसके अन्त मे उमका निषेव करने वाले 'नोपान्त्यवत' २।४।१३ और 'मन' २।४।१४ ये दो सूत्र हैं। उक्त दोनो सूत्रो के कारण जिन शब्दो मे अन् और मन् प्रत्यय लगे होते हैं, उनके बाद स्त्रीलिंग बनाने के लिए डी प्रत्यय नहीं आता है । इस प्रकार डी प्रत्यय को स्त्रीलिंग बनाने के लिए ताभ्या वाप डित्' २।४।१५ सूत्र द्वारा आम् प्रत्यय का विधान किया है । तत्पश्चात् 'अजाये' २।४।१६ सून को रखा है। पाणिनि ने कुमारी आदि शब्दो को सिद्ध करने के लिए क्यसि प्रथमे' ४।१।२० सूत्र की रचना की, जिसका तात्पर्य है कि प्रयम अवस्था को बतलाने वाले शब्द से स्त्रीलिंग बनाने के लिए डीप् प्रत्यय होता है। हेम के यहा उक्त सूत्र के स्थान पर 'क्यस्यन्त्ये' २।४।२१ सूत्र है। इसमे अन्तिम अवस्था बुढापा से भिन्न अर्थ को बतलाने वाले सभी शब्दो के आगे डी प्रत्यय लगता है। जैसे कुमारी, किशोरी और वधूटी आदि । पाणिनि के उक्त सूत्रानुसार वधूटी और किशोरी शब्द नहीं बनने चाहिए, क्योकि ये शब्द प्रथम अवस्थावाची नही है, अत इनकी सिद्धि उक्त सूत्र से नही हो सकती है। मतएव किशोरी और वधूटी के स्थान पर पाणिनि के अनुसार किशोरा और 4बूटा ये रूप होने चाहिए। पर हेम के सूत्र से उक्त सभी उदाहरण सिद्ध हो जाते हैं । हेम ने 'वयस्यनन्त्ये' २।४।२१ मूत्र वहुत सोच समझ कर लिखा है।
पाणिनि के दोपपरिमार्जन के लिए कात्यायन ने 'वयस्यचरमे इति वाच्यम्' पातिक लिखा है । सचमुच मे हेम का उक्त अनुशासन अध्ययन पूर्ण है।