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आचार्य हेमचन्द्र और पाणिनि ८३ शासन मे भाषा की समस्त नवीन प्रवृत्तियो को समेटने की चेष्टा की है।
२०६रूपो की सिद्धि को हेम ने प्रथम अध्याय के चतुर्थपाद मे आरम्भ किया है। पाणिनि ने अजन्त की साघनिका आर+भ करने से पूर्व अर्थवदवातुरप्रत्ययः प्रातिपदिकम्' १।२।४५ सूत्र द्वारा प्रातिपदिक सज्ञा पर प्रकाश डाला है। हेम ने 'अधातुविभक्तिवाक्यमर्थयनाम' १६११२७ सूत्र मे नाम की परिभाषा बतलाई है। पाणिनि ने जिसे प्रातिपदिक कहा है हेम ने उसको मात्र नाम का अन्तर माना है, अर्थ का नहीं । हेम ने इसी नाम सज्ञा का अधिकार मानकर विभक्तियो का विधान किया है। हेम शब्दानुशासन मे पाणिनि के द्वारा प्रयुक्त विभक्तिया ही प्राय. गृहीत हैं। केवल प्रथमा एकवचन में पाणिनि के सु के स्थान पर कातन्त्र के समान 'सि' विभक्ति का विधान किया गया है। हम ने ११४१२ सूत्र से 'अत' की अनुवृत्ति कर 'मस् ऐस्' ११४१२ सूत्र रचा है जो पाणिनि के 'अतो मिस ऐस्' ७।१।६ के समान प्रयास है।
पाणिनि ने 'जसो शि' ७१।२० के द्वारा जस् के स्थान में 'शि' होने का विधान है, हेम ने 'जस इ' ११४६ द्वारा सीधे जस् के स्थान पर 'इ' कर दिया है। इसका कारण यह है कि पाणिनि के यहा यदि केवल इ का विधान हाता तो वह जस् के अन्तिम वर्ण स् को भी होने लगता, अतएव उन्होने शकार अनुवन्ध को लगाना आवश्यक समझा और समस्त जस् के स्थान पर शि का विधान किया। हेम के यहा इस तरह का कुछ भी झमेला नही है। इनके यहा जस् के स्थान पर किया गया 'इ' का विधान समस्त जस् के स्थान पर होता है। अत यहा हेम की लाधव दृष्टि प्रशसनीय है । हेम ने पाणिनि की तरह सर्वादि की सर्वनामसज्ञा नही की, किन्तु सर्वादि कहकर ही काम चलाया गया है। जहा पाणिनि ने सर्वनाम को रोककर सर्वनाम प्रयुक्त कार्य रोका है, वहा हेम ने सर्वादि को सर्वादिही नही मानकर काम चलाया है। यह भी हेम की लाधव दृष्टि का सूचक है।
पाणिनि ने आम को साम् बनाने के लिए सुटु का आगम किया है, पर हम ने 'अवर्णस्याम साम्' ११४:१५ सूत्र द्वारा आम् को सीधे साम् बनाने का अनुशासन किया है। ____ अजन्त स्त्रीलिंग मे लताय लताया और लताया की सिद्धि के लिए पाणिनि ने बहुत द्रविड प्राणायाम किया है। उन्होने 'याडाप' ७।३।११३ सूत्र से याद किया, पुन वृद्धि की, तब लताय बनाया तथा दीर्घ करने पर लताया और लताया का साधुत्व सिद्ध किया। पर हम ने ११४११७ सूत्र द्वारा सीधे ये यास् और याम् प्रत्यय जोडकर उक्त रूपो का सहज साधुत्व दिखलाया है। हेम की यह प्रक्रिया सरल और लाघवसूचक है।
मुनि शब्द की औ विभक्ति को पाणिनि ने पूर्वसवर्ण दीर्घ किया है। हेम ने इदुतोऽस्तरीदूत्' १।४।२१ के द्वारा इकार के बाद औ हो तो दीर्घ ईकार और