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आचार्य हेमचन्द्र और पाणिनि ८१
हेम ने इस एक सूत्र की वचत कर १।२।३ सूत्र मे ही उक्त कार्य को सिद्ध कर दिया है। हेम ने ऐ और और को सन्धि-स्वर कहा है, पाणिनि और कात्यायन ने नही । उत्तरकालीन व्याख्याकारो ने इनकी सन्ध्यक्षरो मे गणना की है।
पाणिनि ने 'एडि पररूपम् ६।१।६४ सूत्र द्वारा पहले अहो और बाद मे ए, ओ हो तो पररूप करने का अनुशासन किया है। हेम ने 'वौष्ठौती समासे' ११२।१७ द्वारा लुक का विधान किया है। पाणिनि ने अयादि सन्धि के लिए 'एचोऽयवायाव' ६।११७८ सूत्र का कथन कर समस्त कार्यों की सिद्धि कर ली है, किन्तु हेम को इस अयादि सन्धि कार्य के लिए 'एदैतोऽयाय' १।२।२३ तथा 'ओदोतो वाव' १।२।२६ इन दो सूत्रो की रचना करनी पड़ी है। स्वर सन्धि मे हेम का 'हस्वोऽपदे वा' ११२।२२ बिल्कुल नवीन है । पाणिनि व्याकरण मे इसका जिक्र नहीं है। मालूम होता है कि हेम के समय मे 'नदि एपा' और 'नोपा' ये दोनो प्रयोग प्रचलित थे। इसी कारण इन्हे उक्त रूपो के लिए अनुशासन करना पडा। गव्यति, गव्यते, नाव्यति, नाव्यते, लव्यम् एव लाव्यम् रूपो के साधुत्व के लिए हम ने 'य्यक्ये' ११२।२५ सूत्र लिखा है। इन रूपो की सिद्धि के लिए पाणिनि के 'वान्तो यि प्रत्यये' ६।११७६ तया 'धातोस्तन्निमित्तस्यैव' ६११८० ये दो सूत्र आते हैं। अभिप्राय यह है कि हेम ने लव्यम् और लाव्यम् की सिद्धि भी १११।२५ से कर ली है, जब कि पाणिनि को इन रूपो के साधुत्व के लिए ६।११८० सूत्र पृथक लिखना पडा है। पाणिनि के पूर्वरूप और पररूप का कार्य हेम ने लुक द्वारा चला लिया है। पाणिनि ने जिसे प्रकृतिभाव कहा है, हेम ने उसे असन्धि कहा है।
उ, इति, विति तथा ऊ इति इन रूपो की साधनिका के लिए पाणिनी ने 'उन' १११।१७ तथा 'अ' १११११८ ये दो सूत्र लिखे हैं हेम ने उक्त रूपो की सिद्धि 'ऊ पोम' २।२।३६ सूत्र द्वारा ही कर दी है। ___पाणिनि ने जिसे हल सन्धि कहा है, हेम ने उसे व्यजन सन्धि । हेम ने व्यंजन सन्धि मे कवर्गादि क्रम से वर्णों का ग्रहण किया है, जब कि पाणिनि ने प्रत्याहारक्रम ग्रहण किया है। पाणिनि ने विसर्ग को जिह्वामूलीय और उपध्मानीय बताया है, पर हेम ने र खपफयो क–पौ १६३१५ सूत्र मे रेफ को ही विसर्ग तथा जिह्वामूलीय और उप-मानीय कहा है। जो काम पाणिनि ने विसर्ग से चलाया है, वह काम हेम ने रेफ से चलाया है।
हेम ने 'नोऽप्रशानोऽनुस्वारानुनासिकौ च पूर्वस्याधुट् परे' १।३।८ सूत्र द्वारा न को सीधे स बना दिया है, जबकि पाणिनि ने न व स= र स क्रम रखा है, यही नही बल्कि अनुनासिक और अनुस्वार करने के लिए पाणिनि ने 'अत्राननासिक पूर्वस्य तु वा' ८।३।२ और 'अनुनासिकात्पराऽनुस्वार' ८।३।४ इन दो सूत्रो को लिखा है । हेम ने उपर्युक्त सूत्र मे ही इन दोनो सूत्रो को समेट लिया है। हेम ने ११३।१३ मे पतजलि के 'समो वा लोप मेके' सिद्धान्त को अर्थात् सम् के म्