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________________ दोष-काक्षा ८१ साधु भी अपने विचारो और कार्यो से भोले लोगो को जैनत्व से गिराने के प्रयत्न करते रहते हैं । अभी अभी एक महाराज, सर्वोदय केन्द्र का निरीक्षण करने पधारे थे। कुछ संत महात्मा गाँधीजो के प्रशसक रहे है, कुछ श्री विनोबाजी, नेहरुजी आदि के । इस प्रकार के निमित्तो को पा कर 'काक्षा' का उदय होना सरल हो जाता है । यदि विचार पूर्वक देखा जाय, तो जैन धर्म सभी प्रकार की उत्तमता का भाजन है । जो त्याग, तप और पवित्रता, निम्रन्थ धर्म है, वह अन्यत्र कहाँ मिलेगा ? दांत कुरेदने के लिए तृण जैसी तुच्छ वस्तु भी जो बिना दिये नही लेते, जो नियम के इतने पाबन्द होते हैं कि प्राण दे दें,पर अपने स्वीकृत नियम को नही छोडे । मौत मंजूर पर सचित्त पानी (प्राण बचाने के लिए भी) पीना मन्जूर नही । रात्रि भोजन का सर्वथा त्याग । एक कौडी भी पास मे नही रखने वाले । उनके पेट भरने के नियम इतने उच्च कि उसकी बराबरी कोई भी दूसरी विचारधारा नहीं कर सकती । जो खुद संसार की प्राधि, व्याधि और उपाधि से मुक्त हैं और दूसरो को मुक्त करने मे प्रयत्यशील हैं, जो संसार को स्थायी (शाश्वत) सख का मार्ग दिखा कर वास्तविक हित करते है, ऐसे निग्रन्थो की बराबरी संसार का कौन सत कर सकता है ? कहाँ है, इतना निरवद्य, निर्दोष और पवित्र जीवन ? किंतु एक ओर कई निर्ग्रन्थो की ढिलाई तथा सुखशीलियापन और दूसरी ओर अजैन नेताओ का प्रामाणिक जीवन । इसका भौतिक दृष्टि से मिलान करके लोग अदूरदर्शिता के चलते 'काक्षामोह' मे फँस कर
SR No.010468
Book TitleSamyaktva Vimarsh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanlal Doshi
PublisherAkhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year1966
Total Pages329
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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