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सम्यक्त्व विमर्श
सम्यक्त्व गवां बैठते हैं । श्रभी विश्वप्रेम और जनहित के बहाने श्री डुगरसिंहजी व नेमीचन्दजी म० इसके झपाटे मे आकर मिथ्यात्व के चगुल मे फँस ही चुके हैं । धन्य है वे श्रावक जो मरणान्तक भय सामने मौजूद रहते हुए भी काक्षा के स्पर्श से दूर रहे |
अभी अभी लाखो अछूत लोग, बौद्ध धर्मी बने हैं । 'नवभारत टाइम्स' में उनके विषय मे लिखा था कि “ऐसे बौद्ध बने हुए परिगणित जातियो के लोगो के सामने एक समस्या उपस्थित हो गई है । सरकार से उन्हें परिगणित जाति होने के कारण जो विशेष सुविधाएँ और सहायता मिलती थी, वह बौद्ध हो जाने पर बन्द हो गई । इससे उन लोगो के सामने यह समस्या उठ खड़ी हुई कि वे अब क्या करे ? बौद्ध ही रहे, या पुन पूर्व स्थिति को प्राप्त हो जायँ ? उनके सामने साँप छछुन्दर वाली स्थिति है । इस प्रकार किसी प्राकांक्षा अथवा लालसा से धर्म को छोडने या दूसरे पथ को ग्रहण करने वाले अवसरवादी होते हैं | वास्तविक अनुयायी नही होते ।
३ विचिकित्सा
तीसरा दोष 'विचिकित्सा' के रूप मे उपस्थित होता है । 'किसे मालूम इस तपस्या, विरति और कायक्लेश का फल होगा या नही ?' कुछ लोग, कुश्रद्धा के चलते निर्ग्रन्थो के प्रतिलेखन, प्रमार्जन, प्रतिक्रमणादि को और उपवासादि को देख कर उन्हे 'क्रियाजड़' कह कर घृणा करते हैं । उनकी दृष्टि मे