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सम्यक्त्व विमर्श
साधना से, किसी को भी मुक्ति प्राप्त हो जानी चाहिए-ऐसा मानना ठीक है क्या ?
उत्तर-प्रापका कथन किसी अपेक्षा से ठीक है । निम्न दृष्टिकोणो से यदि हम उपरोक्त प्रश्न पर विचार करे, तो समाधान हो सकता है । इस विषय को स्पष्ट करने के लिए हमे १२ द्वारो पर विचार करना होगा।
१ द्रव्य, २ क्षेत्र, ३ काल, ४ भाव, ५ भव, ६ जाति ७ लिंग, ८ वय, ६ वैश, १० आचार-विचार, ११ माधक और १२ वाधक।
१ द्रव्य-प्रात्म-द्रव्य ही के लिए मुक्ति का विचार होता है । वही प्रात्मा मुक्ति के योग्य होती है जो भव्य हा, शुक्ल. पक्षी हो, परिमित ससारी हो, आयुकर्म का प्रवन्ध कहो, सम्यगदृष्टि, विरत, अप्रमत्त, प्रवेदी, अपायी, श्ररागी, सर्वन-सर्वदर्शी अयोगी, अलेशी और अकर्मी हो। इस प्रकार की योग्यता वाली आत्मा, मुक्ति प्राप्त कर सकती है। यह मुक्ति के योग्य द्रव्य है।
२ क्षेत्र-द्रव्य किसी क्षेत्र में ही होता है । अतएव क्षेत्र सम्बन्धी विचार करना भी यावश्यक है। मुक्ति के योग्य प्राणियो का उत्पत्ति क्षेय पन्द्रह कर्मभूमि ही है। इनमे उत्पन्न जीव ही मुक्ति प्राप्त कर सकते हैं । किन्तु माहरण की अपेक्षा अकर्म मि, अन्तीन, नदी, समुद्र, उर्वलोक और अधोलोक में भी मुक्ति प्राप्त की जासकती है । इस के योग्य मनुष्य क्षय (पेनालीस लाख योजन प्रमाण) है। इसमे मे किसी भी क्षेत्र से मुक्ति