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आराध्य की परीक्षा
बताया हुआ निग्रंथ जीवन भी कैसा अनुपम ? कितना पवित्र कि जिसकी बराबरी दुनिया का कोई भी शास्त्र नही कर सकता । पेट पूर्ति के लिए प्राहारादि लेने की विधि भी कितनी निर्दोष ? देनेवाला उच्च भाव पूर्वक देते हुए और सामग्री निर्दोष होते हुए भी यदि दाता, अचानक, अनजानपने से, किसी सचित्त वस्तु को छु ले, तो वह उनके लिए अग्राह्य हो जाती है । यदि वह अग्नि से सम्बन्धित हो, तो नही ली जाती । दाता ने पात्र साफ करने के लिए यदि फूँक लगा दी, या उसे सचित्त पानी से धो डाला, तो वह अग्राह्य । प्रसवकाल के निकट गर्भवती अथवा बच्चे को दूध पिलाती हुई से भी नही लिया जाता। इन सब नियमो के पीछे मुख्यदृष्टि अहिंसा की रही है । ऐसी कौनसी परम्परा है कि जिसमे स्थावर जीवो की रक्षा का ध्यान दिया हो, उनकी हिंसा नही होजाय, उन्हे छु कर कष्ट नही पहुँचाया जाय, इसकी सतत् सावधानी का उपदेश दिया हो । निर्ग्रथो को भूखा प्यासा रह जाना मंजूर, परंतु स्थावर जीवो को स्पर्शते हुए दिया जाने वाला निर्दोष भोजन लेना मंजूर नही । श्रहिंसा के पालन में इतनी जागरुकता अन्यत्र कहाँ है ?
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त्याग, विरति, तप, संयम, प्रहिमादि और विषय कषाय - राग-द्वेष को नष्ट करके वीतराग सर्वज्ञ सर्वदर्शी होकर शाश्वत सुख को प्राप्त करने वाले उत्तम नियम भी इस निग्रंथ प्रवचन मे है, वैसे नियम अन्यत्र नही है |
इस प्रकार यदि हम दूसरे मतो से जैनमत की सम्यग् परीक्षा करे, तो वह सर्वोपरि ही सिद्ध होगा 1