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आराध्य की परीक्षा
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ही पीता है कि 'इसमे कोई गरबडी नही है', फिर भले ही वह विषमिश्रित निकल जाय । चाँदी, सोना, हीरे, मोती आदि की परीक्षा नही जाननेवाले करोडो लोग, किसी दूसरे के विश्वास पर ही उन्हे खरा मानकर लेते है । विष किस प्रकार मारक होता है, इसकी परीक्षा किये बिना ही उसे मारक मानकर लोग दूर ही रहते हैं । इस प्रकार हजारो काम अन्ध-विश्वास से ही चलते हैं, तब सम्यक्त्व के स्वरूप के विषय मे, वीतराग सर्वज्ञ भगवान् के बताये स्वरूप पर विश्वास नही करके स्वत की बुद्धि पर ही भरोसा करना कैसे ठीक होगा? हम अल्पज्ञ इस अरूपी
आत्मिक तत्त्व को किस प्रकार यथार्थ रूप में प्राप्त कर सकते हैं ? वास्तव में अपनी मति को हो पूर्ण समर्थ मानकर सर्वज्ञो के सिद्धात की उपेक्षा करना, अपने को धोके मे डालना है।
यदि परीक्षा करनी है, तो सम्यग् रीति से करनी चाहिए । यदि सुज्ञ परीक्षक, ससार के भिन्न भिन्न मतो और उनके शास्त्रो को देखें और उनके आराध्य की दशा पर विचार करे, तो उसे अपना आराध्य चुनने मे सरलता हो सकती है।
आराध्य की परीक्षा वही आराध्य सर्वोत्तम है जो राग-द्वेष से रहित हो । भयंकर कष्ट देने वाले, महान् अत्याचारी और अनाचारी पर भी जो क्रुद्ध नही होता है, जो उपासको पर प्रसन्न होकर उनका भला करने की प्रतिज्ञा नही करता, वही वीतराग है। ऐसे वीतरागी की सम्यग् आराधना ही जीव को वीतरागी