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सम्यग्दृष्टि कौन
है और उसके फल स्वरूप वह ग्रैवेयक में अहमिन्द्र भी बन जाता है, फिर भी मिथ्यादृष्टि ही रहता है । क्योकि उसका विश्व' स मोक्ष मे है ही नही । इसलिए उसकी साधना भी मुक्ति प्रदायक नही बनती ।
"मोक्ष है भी या नही ? यदि हो भी, तो उसमे धरा ही क्या है ? न खाना न पीना, न ऐश न श्राराम, न सेवक न सेव्य, फिर रखा ही क्या है - ऐसी मुक्ति में, जहाँ बुतकी तरह एक स्थान पर ही चिपके रहते हैं । ऐसी मुक्ति यदि हो, तो भी किस काम की ?" इस प्रकार आत्मिक पूर्ण आनंद के प्रति अविश्वासी बनकर मिथ्यादृष्टि रहते हैं । जिस उग्र चारित्र के बल से श्रद्धाशील श्रमण, मुक्ति लाभ करते हैं, उसी प्रकार के उग्र चारित्र को मात्र कुश्रद्धा के चलते मिथ्यादृष्टि जीव, नाशवान् एव अनित्य पोद्गलिक सुखो मे समाप्त कर जन्म मरण के चक्कर में उलझा ही रहता है । मोक्ष वही पाता है जो उसमें यथार्थ श्रद्धा रखता है |
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सम्यग्दृष्टि कौन
शका - सम्यगदृष्टि तो वह होता है जिस मे क्रोध, मान, माया और लोभ नही हो, जिसकी वासना मर चुकी हो, जो शत्रु और मित्र पर समान भाव रखता हो । श्राप तो श्रद्धा गुण में ही सम्यग् दृष्टि बता रहे हैं, यह किस प्रकार सत्य हो सकता
है
समाधान - जिनकी कषायें और विषय वासना मर चुकी