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सम्यक्त्व विमर्श
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रूप निर्जरा का प्राश्रय लेना ही पडेगा, तभी मैं मुक्त होकर अंतिम तत्त्व को प्राप्त कर सकूगा-सिद्ध हो सकूँगा । ऐसा दृढ विश्वास ही 'सम्यग्दर्शन' है। इस प्रकार की विचारणा और श्रद्धा रखने वाला सम्यग्दृष्टि है।
हम इस विषय को संक्षेप में इस प्रकार भी समझ सकते हैं,
सम्यग्दष्टि वही-जो मोक्ष को यथार्थ रूप में माने। जो मोक्ष को मानेगा, वह मोक्ष के साधनो को भी मानेगा और बंध के कारणो को भी माने ही गा । यदि बंध नही माने, तो मोक्ष किसका ? और साधना की जरूरत ही क्या? इस प्रकार प्रत्येक तत्त्व की श्रद्धा होनी ही चाहिए।
आस्तिकता दुनिया में जितने भी आस्तिक दर्शन हैं, वे पुण्य, पाप, स्वर्ग, नर्क और पुनर्जन्म को मानते ही हैं। कोई मोक्ष को भी मानते हैं। इसीलिए वे प्रास्तिक दर्शन कहलाते हैं । इस प्रास्तिकता मे प्रत्येक का तत्त्व निरूपण भिन्न भिन्न प्रकार का है। सब अपने अपने ढंग से प्रतिपादन करते हैं। जैन दर्शन उसी को पूर्ण आस्तिक और क्रियावादी (सम्यगदृष्टि) मानता हैजो नव तत्त्वो मे यथार्थ श्रद्धा रखता हो।
एक आचार्य ने कहा है कि कितने ही मिथ्यादृष्टि ऐसे होते है, जिनकी आठ तत्त्वो मे तो श्रद्धा है, किन्तु मोक्ष तत्त्व मे श्रद्धा नहीं है । वह साधु के योग्य उच्च चारित्र पालता