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भक्त्वासंप्रसभं कुकर्मनिचयं शक्त्याच सम्यक्परब्रह्माराधनमद् भुतोदितचिदानंदं पदं विंदते ।
जो मनुष्य तीन जगत् के नाथ ऐसे जिनेन्द्र भगवान् द्वारा प्रतिपादित, सम्यक्त्वरूप अद्भत रत्न का आदर सहित अभ्यास करता है, वह निन्दित कर्मों को बलपूर्वक समूल नष्ट कर के विलक्षण आनन्द प्रदान करने वाले परब्रह्म को प्राप्त कर लेता है।
दर्शनपाहुड मे लिखा किदसणमूलो धम्मो, उवइट्ठो जिणवरेहि सिस्साणं । तं सोउणसकण्णे, सणहीणो ण वंदिवो ॥
जिनेश्वर भगवान् ने शिष्यो को उपदेश दिया है कि 'धर्म, दर्शन-मूलक ही है। इसलिए जो सम्यग्दर्शन से रहित है, उसे वंदना नही करनी चाहिए। अर्थात्-चारित्र तभी वंद. नीय है जब कि वह सम्यग्दर्शन से युक्त हो ।
चारित्र पालने में असमर्थ जीवो को उपदेश करते हुए पूर्वाचार्य 'गच्छाचारपइन्ना' मे लिखते है किजइवि न सरकं काउं, सम्म जिणभासिअं अणुट्टाणं । तो सम्म भासिज्जा, जह भणि खीणराहि ॥ ओसन्नोऽविविहारो, कम्मं सोहेइ सुलभवोही अ । चरणकरणविसुद्धं, अवहितो पवितो ।।
-यदि तू भगवान् के कथानुसार चारित्र नहीं पाल