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सम्यक्त्व महिमा शास्त्रकारो ने सम्यक्त्व की महिमा बतलाते हुए बहुत कुछ कहा है । उनमे से कुछ नमूने यहा दिये जाते है।
सघ रूपी सुमेरु पर्वत की स्तुति करते हुए नन्दीसूत्रकार, सम्यग्दर्शन की महिमा बतलाते है,__ "सम्मइंसणवर-वइर-दढ-रूढ़-गाढावगाढ-पेढस्स ।
धम्मवर-रयण-मंडिय, चामीयर-मेहलागस्स॥ १२॥"
अर्थात-सघरूपी सुमेरु पर्वत की, सम्यग्दर्शन रूपी उच्चकोटि के वज्र की सुदृढ और बहुत ही गहरी भू-पीठिका (आधार-शिला) है, जिस पर श्रुत-चारित्र रूपी उत्तम धर्म की मेखला स्थिर रही हुई है।
उपरोक्त गाथा मे सूत्रकार भगवंत ने सम्यगदर्शन को जिनधर्म रूपी मेरु पर्वत की आधारशिला बतलाई है, जिस पर समस्त सघ एवं धर्म रहा हुआ है। बिना सम्यग्दर्शन रूपी प्राधारशिला के न तो धर्म रह सकता है और न सघ ही ।। तात्पर्य यह कि धर्म और संघ का आधार ही सम्यग्दर्शन-सम्यपत्व है।
इसके पूर्व संघ को चन्द्रमा की उपमा देते हुए गाथा के उत्तरार्द्ध मे बतलाया कि___ "जय संघ-चंद ! निम्मल-सम्मत्त-विसुद्ध-जोहागा।"
_हे निर्मल सम्यक्त्वरूपी विशुद्ध ज्योत्सना (चाँदनी) वाले संघरूपी चन्द्रमा ! तुम्हारी जय हो, तुम जयवंत हो।।
चांद का प्रकाश ही चाँदनी है । यदि चाँद मे चांदनी