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________________ २६८ सम्यक्त्व विमर्श as नही हूँ, २ मेरी आत्मा अनादि पर्यवसित अर्थात् शाश्वत है ३ मैं कर्म का कर्त्ता हूँ, कर्म मेरे ही किये हुए है, ४ अपने किये हुए कर्म के फल का भोक्ता भी मैं ही हूँ। मेरी वर्त्तमान अव स्था भी कर्मों के फल स्वरूप ही है, ५ आत्मा मुक्त हो सकती है और ६ मुक्ति का उपाय भी है । सम्यग्ज्ञान, दर्शन, चारित्र और तप- ये आत्मा की मुक्ति के उपाय हैं । उपरोक्त षट्पदी का साधारण ज्ञान, श्रावक और साधु को होता है । सक्षेप रुचि से इतना ज्ञान होना असंभव नही है । यदि किसी जीव को इतना भी ज्ञान नही हो और वह ज्ञानी पर विश्वास रखकर उनकी प्राज्ञानुसार साधना करता हो, तो वह भी आराधक होकर मुक्ति प्राप्त कर सकता है | भगवती सूत्र श २५ उ ७ मे स्पष्ट उल्लेख है कि मति श्रुत ज्ञानी, आठ प्रवचन माता की सामान्य जानकारी से भी श्रेणी का श्रारोहण करके यथाख्यात चारित्री और केवलज्ञानी हो सकता है । हम देखते हैं कि सूझते हुए व्यक्ति के सहारे से अन्धा भी इच्छित स्थान पर पहुँच सकता है । अनजान व्यक्ति भी जानकार का साथ करके, अपरिचित स्थान को पार करता हुआ लक्षित स्थान पर पहुँच सकता है । इसी प्रकार गीतार्थ की नेश्राय मे रहा हुआ श्रद्धाशील आत्मार्थी, आराधक हो सकता है । जिनागम मे कहा है कि ' सक्षेपरुचि सम्यक्त्व ' भी होता है । ऐसा सम्यक्त्वी भी आत्मा का अस्तित्व और बंधन मुक्ति
SR No.010468
Book TitleSamyaktva Vimarsh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanlal Doshi
PublisherAkhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year1966
Total Pages329
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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