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आत्मदर्शन और सम्यग्दर्शन
प्रश्न-बिना आत्मदर्शन किये सम्यग्दर्शन कैसे हो सकता
उत्तर-आत्मा तो अरूपी है, उसका दर्शन कैसे हों सकता है ? समस्त जैन-सिद्धात प्रात्मा को, धर्मास्तिकाय, प्रधर्मास्तिकाय और आकाशास्तिकाय की तरह प्ररूपी मानता है । इसमे किसी का मतभेद नही है । जब हम धर्मास्तिकायादि को रूपी नही मानते और प्रत्यक्ष नही देख सकते. तथा रूपी पुद्गल मे रहे हुए अनन्त गुण-धर्मों का साक्षात्कार भी नही कर सकते और वट-वृक्ष के छोटे से बीज मे रही हुई विशालता के दर्शन भी नही कर पाते, तो अरूपी प्रात्मा के दर्शन कैसे कर सकते हैं ? यह चक्षु, अचक्षु और अवधिदर्शन का विषय नही है । बहुत से देव भी ऐसे हैं जो बन्ध और निर्जरा के रूपी चौफरसी पुद्गल भी नही देख सकते, तो अरूपी आत्मा को कैसे देख सकते है ? अतिन्द्रय पदार्थ, लक्षणो से जाने जाते हैं और उनका अनुभव किया जा सकता है । लक्षणो और ज्ञान से जानकर आत्मा का अनुभव किया जा सकता है । प्रात्मानुभव को ही यदि 'आत्मदर्शन' कहा जाय, तो बाधा नही है।
प्रश्न-बिना आत्मज्ञान हुए व्रत, सामायिक, पौषध और संयम की साधना व्यर्थ होती है, बन्धन कारक होती है। मिथ्यात्व के सद्भाव मे कोई भी साधना सफल नही हो सकती । आप पात्मज्ञान के पूर्व ही व्रत-प्रत्याख्यान पर जोर क्यो देते हैं ?
उत्तर-प्रात्मा का साधारण ज्ञान तो सम्यग्दृष्टि को होता ही है। वह इतना तो जानता है कि-१ मैं आत्मा हैं,