________________
सजातीय विजातीय
ज्ञान और प्रतीति होती है, तब उसका ध्येय शुद्ध होता है और उसके बाद वह देव गुरु और धर्मरूप स्वजातीय पर का अवलम्बन लेकर स्वयं उन्नत होने का प्रयत्न करता है।
ध्येय-लक्ष्य दूर रहता है, इतना दूर कि जिसे प्राप्त करने में समय लगता है और उन स्थितियो से होकर गुजरना पड़ता है, जो ध्याता और ध्येय के बीच मे रही हुई है । जघन्य स्थान मे रहे हुए व्यक्ति को उत्कृष्ट स्थान प्राप्त करने के पूर्व सभी मध्यम स्थानो को पार करना ही पड़ता है । यह दूसरी बात है कि किसी को लम्बा काल लगता है, तो किसी को थोडा । यह तो सर्वथा अशक्य ही है कि बिना श्रेणी चढे कोई सीधा प्रथम गणस्थान से चौदहवे गुणस्थान मे पहुच जाय अथवा सिद्ध हो जाय +1
लोक के अशुभ व्यवहार मे पडे हुए जीव को, अव्यवहारी होने के लिए सर्व प्रथम शुभ एव शुद्ध व्यवहार का आश्रय लेना ही पड़ता है, तभी वह अव्यवहारी बनता है । अशुभव्यवहारी से सीधा अव्यवहारी बन जाय-ऐसा कभी नहीं हो सकता । यह ध्रुव सिद्धात है कि
"अकम्मस्स ववहारोण विज्जइ कम्मुणा उवाही __ जायइ" (प्राचाराग १-३-१)
अर्थात् व्यवहार (अस्थिरता, ग्रहण करना, छोडना, एक स्थान से दूसरे स्थान जाना, संयोग-वियोगादि विविध भावों
।
+ हां, बीच में कोई जीव, कुछ स्थान लाघ सकता है, पर आगे नाकर तो उसे अप्रमत्त होकर क्षपक-श्रेणी का आरोहण करना ही पड़ेगा।