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सम्यक्त्व विमर्श
ऊपर उठना चाहता है, तो सहारा तो उसे उसी मोह रूपी रस्सी का लेना पडेगा, परंतु इस समय उसकी दृष्टि नीची नही होकर ऊँची रहेगी। वह उर्ध्वमुखी होगा । उसका पाप से स्नेह नही होकर धर्म से प्रेम होगा, देव गुरु की भक्ति होगी । विषयासक्ति का स्थान अब त्यागानुवृत्ति ने ले लिया है । विषयानुराग का स्थान धर्मानुराग - सवेग रग ने लिया है। यह प्रशस्त मोह का अवलम्बन उसे कूएँ से निकालकर उस धरातल पर ले आयगा, जहा वह पहुँचना चाहता है । फिर वह स्वावलम्बी बन जायगा । प्रप्रशस्त परावलम्बन से पतन हुआ था - कूएँ मे पडा था, अब प्रशस्त परावलम्बन से ऊँचा उठेगा ।
अत्र
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लक्ष्य मे है निश्चय - स्वयंभू बन जाने की दृष्टि, और श्राचरण में है व्यवहार - लक्ष्य की ओर बढने की क्रिया । इन दोनो के सुमेल से ही जीव, आत्मा से परमात्मा बनता है । कूएँ मे पडा हुआ जीव, पहले बाहर निकलने का ध्येय बनाता है और फिर रस्मी पकडकर उसके सहारे से ऊपर चढने की क्रिया करता है | जब वह क्रूएँ के किनारे पर आ जाता है, तो रस्सी का अवलम्बन उसके लिए व्यर्थ हो जाता है । किंतु जब तक वह ध्येय से थोडा भी दूर रहता है, तब तक वह रस्सी के सहारे को छोड़ता नही है ।
प्रथम गुणस्थान में जीव, अधोमुखी होता है । यदि वह उर्ध्वमुखी होना चाहता है, तो भी मार्ग का सम्यग्ज्ञान एवं प्रतीति नही होने से वह कुएँ से बाहर नही निकल सकता और इधर उधर ही भटकता रहता है । जब उसे मार्ग का वास्तविक