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________________ सम्यक्त्व के पोषक तत्त्व re......... ........... ................... वह उसके श्रद्धा बल के कारण सम्यग् रूप से ही परिणत होती है (आचारांग श्रु. १ अ. ५ उ ५) जिस प्रकार सूझते का हाथ पकड़कर अन्धा भी इच्छित स्थान को प्राप्त हो जाता है, उसी प्रकार ज्ञानवंत के आश्रित रहा हुआ श्रद्धालु अनपढ़ भी कल्याण साध लेता है। सम्यक्त्व के पोषक तत्त्व जब यह मान लिया कि "वीतराग सर्वज्ञ सर्वदर्शी अरिहंत भगवान् मेरे परम-तारक देव हैं, निग्रंथ मुनिवर मेरे गुरु हैं और जिन-प्रणीत श्रुत चारित्ररूप धर्म, मेरा धर्म है और यही सम्यक्त्व है, तो इसको पुष्ट, दृढ और उन्नत (क्षायिक सम्यक्त्व प्राप्त कराने वाली) बनाने के लिए उन साधनो का अवलंबन लेना ही पडेगा, जिनके अवलंबन से आत्मा उर्ध्वगामी होता रहे । जिसकी दर्शन आराधना साधारण-जघन्य कोटी की हो, वह भी यदि आराधना को चालू रखे और छोडे नही, तो अधिक से अधिक पन्द्रह भव करके सिद्ध होता ही है (भगवती ८-१०) इसलिए दर्शनाराधना सतत चालू रहे और हमसे छूट नही जाय, इसकी पूरी सावधानी रखनी चाहिए और इसके पोषक पालम्बन का सहारा लेते ही रहना चाहिए । वे प्रशस्त पालम्बन ये हैं, परमार्थ का गुण कीर्तन करना, तत्त्व चिंतन, तत्त्वज्ञान वर्धक साहित्य का वाचन (स्वाध्याय) करना, पुनः पुन. मनन
SR No.010468
Book TitleSamyaktva Vimarsh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanlal Doshi
PublisherAkhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year1966
Total Pages329
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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