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सम्यक्त्व विमर्श
का लोप करने में ही अपनी शक्ति लगाते हैं । जो जिनेश्वर भगवतो की वीतरागता सर्वज्ञता नही मानते, वे जैनत्व से ही इन्कार करते है । जब जिनेश्वर वीतराग नही, सर्वज्ञ-सर्वदर्शी नही, तो उनका उपदिष्ट मार्ग भी विशुद्ध नही । उनमे भूल एव स्खलना हो सकती है, तो उनके मार्ग के प्रचारक-गुरुवर्ग भी उसी दूषित मार्ग के प्रचारक हो सकते हैं । धर्म का मूल उद्गम स्थान ही जहाँ त्रुटिपूर्ण हो, तो उनका धर्म और उसके
आश्रित गुरु-वर्ग भी त्रुटिपूर्ण ही होता है । इस प्रकार भगवान् जिनेश्वर देवो की वीतरागता और सर्वज्ञ-सर्वदशिता को नही मानने वाले, उनके मार्ग को भी त्रुटि-पूर्ण माने, तो इसमे सन्देह ही क्या है ? ऐसे लोग, जिनेश्वर, उनके तत्त्वोपदेश तथा मक्तिमार्ग के विरुद्ध प्रचार करने वाले हैं, उनका महत्व गिराने वाले हैं, वे भव्य-जीवो के हित-शत्रु हैं।
हा, तो धर्म का उद्गम स्थान देव-तत्त्व है। प्रात्मा को परमात्मा बनानेवाली प्रकिया का वास्तविक उपदेष्टा यदि कोई है, तो केवल सर्वज्ञ-सर्वदर्शी जिनेश्वर भगवत ही। धर्म के इस मूलाधार को यथार्थ रूप मे मानने वाला, उनके प्रवचनो पर पूर्ण श्रद्धा रखने वाला ही सम्यक्त्व युक्त हो सकता है । जिसके हृदय मे जिनेश्वर भगवंतो की परम वीतरागता, सर्वज्ञसर्वदशिता तथा उनके निग्रंथ-प्रवचन मे श्रद्धा नही-दृढ श्रद्धा नही, वह सम्यग्दृष्टि नही है, मिथ्यादृष्टि है ।
जो धर्म के मूलाधार ऐसे देवतत्त्व पर श्रद्धा रखता है, वही गुरु-तत्त्व पर भी श्रद्धा रखता है। गुरु के गुरुत्व की कसोटी