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सम्यग्दर्शन का महत्व
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सागरोपम की स्थिति भी अधिकतर दैविक सुखो मे बीतती है। बीच के मनुष्य-भव भी उसके सुखो से पूर्ण होते है ।
विचार करिये, अधिक निर्जरा किससे होती है ? अनन्त संसार का अन्त कौन करता है ? एक सम्यग्दर्शन ही ऐसा है कि जिसके चलते अनन्त पुद्गल परावर्तन का संसार-भ्रमण नष्ट होकर अधिक से अधिक अर्द्ध पुद्गल-परावर्तन तक सिमट जाता है और सम्यग्दर्शन से रहित चारित्र का पालन किया
जाय, तो वह चारित्र और तप, कितना ही उग्र क्यो न हो, एक __ भी भव कम नही होता । बिना सम्यक्त्व के उच्च चारित्र और
उग्र तप का पालन करने वाले अभव्यो के अनन्त भव-भ्रमण मे कुछ भी कमी नहीं होती। दूसरी ओर कोई अनपढ हो-अधिक पढा लिखा नही हो, चारित्र के गुण भी उसमे नही हो, किंतु सम्यक् श्रद्धान युक्त हो, तो उसका भी मूल्य है, महत्व है । वह दर्शन गुण, उस आत्मा मे चारित्र गुण भी जगा देगा और मुक्ति प्राप्त करा देगा। अत स्पष्ट हो चुका कि सम्यग्दर्शन के बिना पड़ा हुआ श्रुत भी सम्यग्ज्ञान नहीं होता, पाला हुआ चारित्र भी सम्यक् चारित्र नहीं होता और तपा हुप्रा उग्र तप भी सम्यक् तप नही होकर अकामनिर्जरा का ही कारण होता है। पाराधना की दृष्टि से सम्यग्दर्शन के बिना तीनो बेकार हैं, किंतु इन तीनो के बिना अकेला सम्यग्दर्शन भी मूल्यवान है। इन तीनो को लाकर मोक्ष मे पहुँचाने वाला है । सम्यगदर्शन ही मोक्ष महल की आधार शिला है, अतएव यह महामूल्यवान रत्न है । तीन रत्नो मे बहुमूल्य वस्तु-सम्यग्दर्शन है।