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अक्रिया मिथ्यात्व
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६ अगुरुलघु परिणाम-वजन मे न अधिक भारी और न अधिक हलका । इस भेद मे गुरुलघु परिणाम का
भी समावेश होता है। १० शब्द परिणाम-ध्वनि के रूप मे परिणत होना।
यह अजीव परिणाम, केवल पुद्गल द्रव्य का ही है, धर्मास्तिकायादि अरूपी अजीव का नही है, फिर भी ये सभी ससारी जीव मे पाये जाते है, क्योकि अजीव से सम्बन्धित जीव भी गति करता है, कर्म से बन्धता है, आकृति युक्त है, शरीर व कर्मों का भेद भी होता है, वर्णगन्धादि सभी परिणामो से युक्त है । इसका कारण यह नही कि अजीव, अपने आप, जीव से सबंधित हो गया। इसका कारण यह कि जीव-ससारी जीव ने यह सबंध स्वीकार किया है। यदि जीव, अजीव को नही अपनाता, तो वह व्यवहारी-ससारी रहता ही नही, अपितु सिद्ध हो जाता । श्रीभगवती २५, २ मे लिखा है कि-"अजीवद्रव्य, जीव द्रव्य के परिभोग मे आता है, लेकिन जीव, अजीव के परिभोग में नही आता ।" इसका मतलब यही है कि अजीव अपनेमाप (-बिना जीव की प्रेरणा अथवा प्रयोग के ) जीव के नही लग जाता। वह जीव के क्रिया करने पर ही, जीव से संबं. धित हुआ, अर्थात् जीव के प्रयोग (क्रिया) से जीव का अजीव के साथ सम्बन्ध हझा । जब क्रिया के कारण जीव अजीव का सम्बन्ध और चतुर्गति भ्रमण सिद्ध है, तब इस सम्बन्ध का विच्छेद कराने वाली सवरादि धर्म की क्रिया भी सिद्ध है। फिर अक्रियावाद-क्रिया का निषेध क्यो किया जाता है ?