________________
सम्यक्त्व विमर्श
होते । आत्मा की निज एव स्वाभाविक दशा तो इसी प्रकार की है, किन्तु पर-परिणति के कारण जो विभाव दशा, ससारी जीवो मे न्यूनाधिक रूप से है, वह भी एकान्त अजीव परिणाम तो नही है । उसमे जीव की विभाद-परिणति मूल कारण रूप है ही। संसारी जीवो के साथ जो शरीरादि का सयोग सबंध है, वह एकात अजीव परिणति नही है। भगवती ८-१ मे 'प्रयोग-परिणत' पुद्गल का निरूपण है । वह जीव के 'प्रयोग से शरीरादि रूप मे परिणत हुए हैं। यह भी सिद्धात है कि 'जीव को पुद्गल का सबध होता है वह स्वाभाविक नही, किंतु प्रयोग से है' (भग० श० ६-३ तथा १-६) अतएव वैसे पुद्गल के परिणाम मे जीव का प्रयोग नही मानना भी भल है, एव एकातवाद के कारण मिथ्या है।
अजीव के निम्न दस परिणाम उसके स्वतन्त्र हैं। जैसे१ बध परिणाम-मिलना, यणुकादि रूप से सबंधित
होना और बिछुडना । २ गति परिणाम-पुद्गल का एक स्थान से दूसरे स्थान
जाना। ३ संठाण परिणाम-आकृति धारण करना । ४ भेद परिणाम-टुकडे होना, स्कन्ध से देश आदि होना। ५ वर्ण परिणाम-काला आदि रंग युक्त होना । ६ गन्ध परिणाम-सुगन्धादि युक्त होना । ७ रस परिणाम-तिक्तादि रस वाला होना। ८ स्पर्श परिणाम-कर्कशादि स्पर्श होना ।