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________________ सम्यक्त्व विमर्श है । इसलिए क्रिया की कुछ भी आवश्यकता नही है । श्रात्मा, ज्ञाता एवं दृष्टा ही है, वह कर्त्ता नही है । यदि वह कर्त्ता है, तो अपने ज्ञान-भाव का ही कर्त्ता है, शारीरिक जड- क्रिया का नही ।" इस प्रकार प्रात्मा की एकान्त रूप से प्रक्रिय मान करके, वे आत्म-विशुद्धि करने वाली उत्तम क्रिया का निषेध करते हैं । २०४ कोई एकान्तवादी, जैन कहाते हुए भी श्रात्मा के लिए हितकारी ऐसी पुण्य, सवर, निर्जरा की श्रात्मलक्षी क्रिया का निषेध करते है, और कहते है कि 'आत्मा - जडक्रिया का कर्त्ता नही है । श्रात्मा को कर्त्ता मानना महान् भूल है भयंकर पाप है, हजारो गायो या मनुष्यो को मारने के पाप से भी बढकर पाप है । ' इस प्रकार क्रिया का खण्डन करने वाले इस मिथ्यात्व के अधिकारी हैं । ये श्रात्मवादी कहलाते हुए भी इनका एकान्त प्रक्रियावाद, इन्हे मिथ्यात्व मे धकेल रहा है । जिस प्रकार ज्ञानवादी, मात्र ज्ञान का ही श्राग्रह करके क्रिया का निषेध करते है, उसी प्रकार ये एकान्त प्रक्रियावादी भी हैं । ये स्वतः खाने, पीने, सोने, चलने, बोलने प्रादि क्रिया करते हैं, किंतु मुंह से कहते यही है कि- 'ये क्रियाएँ जड करता है, चैतन्य नही करता । जड से सबंधित चैतन्य और उसके कारण श्रात्मा मे भूख, प्यास, सर्दी, गर्मी, सुख, दुख और ग्रनुकूल प्रतिकूल का संवेदन करते हुए भी जो क्रिया का निषेध करते है, वे अपनी माता को वंध्या कहने के समान भूल करते हैं, क्योकि यह तो प्रत्यक्ष है कि ग्रात्म शून्य निर्जीव शरीर ही इन क्रियाओ को नही
SR No.010468
Book TitleSamyaktva Vimarsh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanlal Doshi
PublisherAkhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year1966
Total Pages329
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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