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न्यून-करण मिथ्यात्व
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प्रचार करना, यह सब कुप्रावनिक-मिथ्यात्व है । श्री उत्तराध्ययन २३ मे लिखा है कि"कुप्पवयणपासंडी, सव्वे उम्मग्ग पट्ठिया । सम्मग्गं तु जिणक्खायं, एस मग्गे हि उत्तमे" ॥६३॥
अर्थात-जिनेश्वर भगवतो द्वारा प्रकाशित मोक्षमार्ग ही उत्तम है । इसके सिवाय जितने भी वचन हैं, वे सब कुप्रावचन होकर उन्मार्ग पर ले जाने वाले हैं।
जैनियो को जिन-प्रवचन पर पूर्णरूप से श्रद्धालु बनकर, कुप्रवचनरूप मिथ्यात्व से बचना चाहिए।
१६ न्यून-करण मिथ्यात्व निग्रंथ-प्रवचन, सर्वज्ञ-सर्वदर्शी, परमवीतरागी जिनेश्वर भगवान् द्वारा उपदिष्ट है । अनन्त-ज्ञानियो के सिद्धात मे कम करना, प्रागम-पाठो मे से मात्रा, अनुस्वार,अक्षर, शब्द, वाक्य, गाथा, सूत्र आदि निकाल देना-कम कर देना, सिद्धात की प्ररूपणा मे, अपने प्रतिकूल पड़ने वाले अश को छोड देना, शरीरव्यापी आत्मा को अंगुष्ठ-प्रमाण मानना आदि इस भेद मे है। तात्पर्य यह कि जिनेश्वर भगवान् द्वारा प्ररूपित सिद्धात से कुछ भी कम मानना, इसी प्रकार प्ररूपणा तथा फरसना मे कमी करना, न्यूनकरण-मिथ्यात्व है।
अपनी कमजोरी से कम पले, तो इसे अपना दोष मानना, लेक्नि वस्तु स्वरूप की मान्यता तथा प्ररूपणा मे कमी नही