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________________ २०० सम्यक्त्व विमर्श “धर्म मानव के बीच का भेद मिटाने मे है, ऊँच नीच के वर्ग नष्ट कर साम्यभाव धारण करने मे है। हमारा धर्म ऊँचा और दूसरो का धर्म नीचा,' इस प्रकार का भेद ही झगडे का मूल है'-यो कहते हुए और भगवान् महावीर का नाम आगे करते हुए कहते हैं कि-'जब धर्म मे ऊँच नीच की भावना व्याप्त हो गई थी, अधिनायकवाद जोर पकड चुका था, तब भगवान् महावीर ने अनेकान्तवाद का उपदेश करके सभी धर्मों का समन्वय करके, सर्वधर्म-समभाव का पाठ पढाया । जैन-धर्म है ही क्या ? एकान्तवाद का विरोधी और अनेकान्तवाद का प्रचारक । मिथ्यादर्शनो के समूह का नाम ही तो जैनधर्म है।" इस प्रकार अनेक रीति से लोकोत्तर-मिथ्यात्व का सेवन करके, लौकिक-मिथ्यात्व तथा अधर्म को धर्म मानने आदि अनेक प्रकार के मिथ्यात्व का सेवन कर, मिथ्यात्वी बनते है । १८ कुप्रावचनिक मिथ्यात्व कुप्रवचन-खोटे प्रवचन-मिथ्या सिद्धात को अपनाना। निग्रंथ-प्रवचन के अतिरिक्त सग्रंथ वचनो और लोकिक मान्यता पर विश्वास करना, उनका प्रचार करना, उनकी प्रशंसा करना, कुप्रवचन के उत्पादक, प्रचारक ऐसे कुप्रावनिक को, सद्प्रावचनिक-सद्प्रचारक मानना, यह सब इस मिथ्यात्व मे आता है। पाचाराग से गीता का समन्वय करने वाले, गीता, बौद्ध-पीटक, गाधी और विनोबा साहित्य तथा ऐसे अन्य शास्त्रो-ग्रथो-पुस्तको का श्रद्धापूर्वक पठन करना, कराना तथा वैसे मन्तव्यो का
SR No.010468
Book TitleSamyaktva Vimarsh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanlal Doshi
PublisherAkhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year1966
Total Pages329
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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