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सम्यक्त्व विमश
पाखण्ड का शिकार बन जाते हैं । जिसके हृदय में जैनधर्म के प्रति पक्की श्रद्धा हो और समझदारी हो, वह ऐसे लौकिकमिथ्यात्व मे पड़कर मूर्ख नही बनता ।
१७ लोकोत्तर मिथ्यात्व
लोकिक-देव गुरु और धर्म को मानना पूजना, लौकिक मिथ्यात्व है । यह लौकिक देवादि से सम्बन्ध रखता है, तब लोकोत्तर मिथ्यात्व लोकोत्तर देवादि से सबंधित है । लोकोत्तर देवादि को लौकिक मानना और लौकिक अभिप्राय से उनकी श्राराधना करना, लोकोत्तर मिथ्यात्व है । इसके भी देवगत, गुरुगत और धर्मगत, ऐसे तीन भेद इस प्रकार है ।
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लोकोत्तर देवगत मिथ्यात्व
जिनमे राग, द्वेष, मिथ्यात्व, श्रज्ञानादि दोष हो, उन्हे मुक्ति-दाता, तरण तारण और लोकोत्तर देव मानना, और निर्दोष परम-वीतराग, सर्वज्ञ-सर्वदर्शी, अरिहत भगवान् को लौकिक देव मानना तथा लौकिक इच्छापूर्ति के लिए उनकी आराधना करनालोकोत्तर देव विषयक मिथ्यात्व है ।
देव साक्षी से त्याग प्रत्याख्यान और विरति करना तो उचित है, किंतु वीतराग मुक्तिदाता से धन, स्त्री, पुत्र तथा प्रतिष्ठादि संसार - परिभ्रमण कराने वाली इच्छा करना, उनसे 'माँग करना और इसके लिए स्मरण जाप तथा ग्राराधना करना, अनुचित है । जिनेश्वर की साक्षी से लग्न करना व प्रभु कृपा