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सम्यक्त्व विमर्श
कहावें तो भी वे हेय-कोटि मे ही आते है।
मध्यम धर्म-जो दुखियो की सेवा करना, रोगियो को औषधि देना, अपना बस चलते अपने परिचय मे आने वाले स्थूल जीवो को कप्ट नही पहुचाना, निरक्षरता मिटाना, बेकारो को रोजी दिलाना, न्याय-नीति से जीवन व्यतीत करना, द्वेष कलह और झगडो को मिटाकर पारस्परिक प्रेम का प्रचार करना, और लोभ तष्णा तथा क्रोधादि को कम करना-जिनका उद्देश्य है, वे सब मध्यम कोटि के धर्म हैं। उनकी न तो मोक्ष मे श्रद्धा है और न उच्च प्राचार का पालन है। ऐसे मध्यम-मार्गी विचार रखने वाले मत, दूसरी श्रेणी में आते हैं।
उत्तम-सर्वोत्तम धर्म वही है जो सर्वोत्तम स्थिति को प्राप्त करने का उद्देश्य रखता है । परमार्थ (मोक्ष) प्राप्ति ही। जिसका ध्येय हो, परमार्थ साधना मे निवृत्ति का सहारा लेकर आत्मा को हलका बनाने की साधना हो, ऐसा आभ्यन्तर दृष्टि प्रधान धर्म ही सर्वोच्च स्थान पा सकता है । ऐसा सर्वोच्च धर्म भी उत्तम रत्ल की भाति एक ही हो सकता है और वह है-श्री जिन-धर्म । इसकी विशेषताए अजोड है, अद्वितीय हैं । संसार का कोई भी धर्म इसकी समानता नही कर सकता । इस प्रकार उत्तम धर्म पाकर भी जो इसकी सर्वोच्चता नही मानकर-' सर्वधर्म समभाव' के मोहक चक्कर में पड़ गए है, वे वास्तव मे समझदार नही है और अनाभिग्रहिक-मिथ्यात्व को अपनाये
हमारे जमाने मे लाखो जैनी, इस मिथ्यात्व के चक्कर