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धर्म, मनुष्य की आवश्यकता ?
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रागी-द्वेषी छद्मस्थ को देव नही माना जाता । जिस प्रकार वेश होने मात्र से नाटक का नकली राजा और सिनेमा के नकली अवतार, आदर-पात्र नही होते, सोने का रंग चढ़ाया हुआ लोहा, सोने का मूल्य नही पा सकता, उसी प्रकार दूषित तथा गुण-शून्य साधु भी पूजनीय नही होता और उसी प्रकार धर्मसंज्ञा प्राप्त कर लेने पर भी अधर्म, धर्म नही बन जाता।
धर्म, मनुष्य की आवश्यकता ?
कई पठित एवं उपाधिधारी लोग कहते और लिखते हैं कि-'समय की आवश्यकता के अनुसार धर्मों की उत्पत्ति होती है'। एक विद्वान और तर्कबाज लेखक ने लिखा कि-"गोवध की प्रवृत्ति जब प्रारम्भ हुई, तब वह भी धर्मरूप ही थी। दुष्काल के कारण मनुष्यो की रक्षा ही नही हो सकती थी, तब पशुओ का पालन कैसे हो सकता था । उस समय मानव रक्षार्थ पशुवध शुरू हुआ, तो यह भी धर्म ही था । इसमे भी मानव रक्षा का महान् उद्देश्य रहा हुआ था।" इस प्रकार याज्ञिक-हिंसा आदि अनेक अधर्मों को भी झठे तर्क लगाकर धर्म बताने और समन्वय करने की कुचेप्टाएँ हुई हैं।
समन्वयवृत्ति ___ कई लोग, अनेकांत के महान् सिद्धान्त को आगे करके और अधर्मों की अनेक बुराइयो की उपेक्षा करके, किसी एक थोडी-सी अच्छी बात से, सर्वोत्कृष्ट जैनधर्म का समन्वय करने