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सम्यक्त्व विमर्श
इससे भी आगे बढकर 'धर्म देव' मानने को तय्यार हो जाते हैं और अपनी इस विवेक-हीनता को गुण मानकर इसका प्रचार भी करते है। उनकी दृष्टि मे अच्छा, बुरा, खरा,खोटा, ऊँचा, नीचा और हेय उपादेय का विचार करना अनुचित होता है । इसे वे साम्प्रदायिकता कहकर निन्दा करते है । उनकी मान्यता होती है कि 'पक्षपाती और साम्प्रदायिक लोग ही विभिन्न मतो (जो लोक भाषा मे 'धर्म' कहलाते हैं) मे भेद मानते हैं। वास्तव मे वे विवेक-विकल है।
वेश की प्रधानता नहीं कई भोले बन्धु कहा करते हैं कि-'हमे किसी के गुण. दोष देखने की क्या आवश्यकता है ? हमें तो साधु वेश देखकर ही उनका आदर सत्कार और वंदन व्यवहार करना चाहिए। जिस प्रकार रुपये की छाप होने पर ही कागज का नोट चलता है, उसी प्रकार वेश होने पर ही साधु की पूजा होती है । नोट के चलन में कागज की ओर नही देखा जाता, उसी प्रकार साधु के या धर्म के गुणदोष देखने की जरूरत नही है।" इस प्रकार कहने वाले, अधर्म का पोषण करते हैं। वे यह नही सोचते कि
करन्सी से निकला हुआ राजमान्य नोट ही गुण युक्त है। उसके । पूरे रुपये प्राप्त हो सकते हैं। किंतु वैसी ही छापवाला नकली गुण
शून्य नोट-'जाली'कहलाता है और ऐसे जाली नोट चलाने वाला अपराधी होता है । वैसी ही छाप होते हुए भी गुण-शून्य नकली नोट नही चलता । उसी प्रकार गुण-शून्य साधु भी मात्र वेश के कारण नही पुजा जाता और वीतरागता तथा सर्वज्ञता से रहित,