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आभिग्रहिक मिथ्यात्व
जिनकी धारणा तत्त्व-ज्ञान के विपरीत (आगम के प्रतिकल) होते हुए भी निर्णय करना नही चाहते, किंतु अपने पकडे हुए गर्दभ-पुच्छ से ही लगे रहते हैं।
यो तो अज्ञान भी मिथ्यात्व है, क्योकि विपरीत ज्ञान जहाँ होता है, वहा मिथ्यात्व होता है। किंतु अज्ञान के साथ प्राग्रह होने पर वह आभिग्रहिक मिथ्यात्व हो जाता है । कभी ऐसा भी होता है कि ज्ञानावरणीय के उदय से सम्यग्दृष्टि को भी किसी एक विषय मे गलत धारणा हो जाती है, किंतु वह होती है जैन-तत्वज्ञान के रूप मे । उसका विश्वास होता है कि "जिनेश्वरो ने ऐसा ही कहा है" ऐसे भ्रम-मात्र से वह मिथ्या. दृष्टि नहीं बन जाता । क्योकि उस मान्यता के साथ उसका प्राग्रह नहीं होता और जब सद्गुरु का योग मिले और वे समझावे, तो वह अपनी गलत धारणा छोडकर सत्य को अपना लेता है । 'मेरा सो सच्चा'-ऐसा हठाग्रह उसका नहीं रहता, किंतु 'सच्चा सो मेरा'-इस प्रकार वह सत्य-तत्त्व का ग्राहक रहता है । इस प्रकार की भूल-भुलय्या के कारण जिनेश्वरो पर श्रद्धा रखते हुए, किसी विषय मे गलत धारणा होने पर भी वह मिथ्यादष्टि नहीं माना जाता । आचारांग सूत्र १-५-५ मे कहा है कि
"समियं ति भण्णमाणस्स समिया वा असमिया वा समिया होति उवेहाए। असमियं ति मण्णमाणस्स समिया वा असमिया वा असमिया होति उवेहाए"।
अर्थात्-जिसको श्रद्धा शुद्ध है, जो मानता है कि "जिने.