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सम्यक्त्व विमर्श
(उववाई) निग्रंथ-प्रवचन को आगे करके (निग्रंथप्रवचन के अनुसार प्रवर्तन करते हुए) विचरते है, वे खरे साधु है । ऐसे उत्तम साधुओ को असाधु मानना मिथ्यात्व है ।
६ अमुक्त को मुक्त मानना
जो राग-द्वेष मे रगे हए है, जिन्होने संसार के बन्धनो को .. समझा ही नही, जो जीव अजीव को जानते नही, जिन्हे बन्धन और मुक्ति का ज्ञान नही, उन कर्म-बन्धनो मे जकडे हुए और ससार मे परिभ्रमण करते हुए जीवो को मक्त मानना मिथ्यात्व है। जिनका मिथ्यात्व भी नही छटा, जिनकी अज्ञान से भी मुक्ति नही हुई, जो प्रेमियो-भक्तो के प्रति स्नेह रखकर उनको मुक्त करने की प्रतिज्ञा करते है, जो दुष्टो का संहार और सज्जनो की रक्षा करने का अशक्य एव अनहोना विश्वास दिलाते है, वे अपने खुद के मिथ्यात्व से भी मुक्त नही हुए, तो दूसरो को किस प्रकार मुक्त कर सकते है। जिस प्रकार बन्दीगृह मे पडा हुप्रा, प्रथम श्रेणी का बन्दी, तृतीय-श्रेणी के बन्दी को कहे कि-'तू मुझ पर विश्वास कर, मैं तेरे बन्धन काट कर तुझे स्वतन्त्र करा दूंगा,' तो ऐसे व्यक्ति के वचन पर कौन विश्वास करेगा ? समझदार तो यही कहेगा कि-"पहले आप स्वय तो मुक्त हो जाइए, फिर मेरी चिता कीजियेगा । अभी आपके छूटने का तो ठिकाना ही नही, खुद बन्दी बने हुए हैं और मुझे छुडाने की प्रतिज्ञा करते है। आपकी इस प्रतिज्ञा पर कौन विश्वास करेगा?"