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सम्यक्त्व विमर्श
के मार्ग से बहिष्कृत है - " न वीरजायं अणुजाइ भगं" ।
जो साधुता का वेश धारण करके उसके द्वारा पेट भराई करते है, स्वप्न फल और सामुद्रिक लक्षण बतलाते हैं और ज्योतिषादि द्वारा लोगो मे आश्चर्य उत्पन्न करके कर्म बन्धन को बढाते हुए जीवन निर्वाह करते हैं, इस प्रकार असाधु होते हुए भी जो अपने को साधु बतलाते है, वे दुर्गति को प्राप्त होकर अनेक प्रकार के दुःख भोगेंगे ।
जो परमार्थ (मोक्ष) में विपरीत भाव रखते है, उनकी संयम रुचि भी व्यर्थ है, क्योकि उनका संयम भी ससार मे रुलाने वाला ही होता है ।
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ऐसे प्रसाधु लोग, विशुद्ध साधु सस्था के लिए बडे घातक होते है । वे सोना मढे हुए उस लोहे के समान है, जिसपर विश्वास करके भोले लोग ठगे जाते है । लोगो को जितना खतरा विशुद्ध लोहे से नही होता, उतना स्वर्ण - मढित लोहे से होता है । अनजान लोग ऊपर से सोने का आभास पाकर ठगे जाते है । घर में रहे हुए धन को, जितना खतरा, घर के चोर श्रथवा भेदिये का होता है, उतना बाहर के अनजान से नही होता । इसी प्रकार निर्ग्रथ संस्कृति को जितनी हानि दूसरे श्रसाधुओ से नही हुई, उतनी निर्ग्रथ साधु का वेश धारण करने वाले साधुओ से हुई | जिनधर्म का अधिक अनिष्ट ऐसे ही श्रसाधुओ से हुआ है ।
मध्ययुग मे भगवान् महावीर के वंशज साधुओं की जीवन-चर्या बहुत बिगड़ गई थी। वे भगवान् के साधु कहाते