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असाधु को साधु मानना
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असमय मे, अथवा न्यूयाधिक करते हैं । इसी प्रकार स्वाध्यायादि भी नही करते या अकाल मे करते हैं। आवश्यकी नषेधिकी आदि समाचारी के पालन मे बेदरकार रहते है और अनेषणीय आहारादि लेते हैं। उनके पीठ-फलक की ठीक प्रतिलेखना नही होती, उनके बिस्तर बिछे ही रहते है । इस प्रकार अनेक दोषों के पात्र अवमन्न साधु भी असाधु हैं ।
संसक्त-विषयो मे आसक्त, पाचो प्रकार के आश्रव मे प्रवृत्ति करनेवाले, तीन प्रकार के गारव से युक्त, गृहस्थो से प्रति परिचय रखने वाले और उपरोक्त चारो प्रकार के कुशीलियो की सगति करनेवाले, तथा जिनके मूलगुण और उत्तरगुण मे सभी प्रकार के दोष लगते हो-ऐसे मिश्र परिणाम वाले साधु भी असाधु है।
निग्रंथ मनिराज अनाथीजी ने मगध के अधिपति श्रेणिक को कहा था कि 'राजन् । निग्रंथ धर्म प्राप्त करके भी बहत से लोग कायरता अपना कर ढीले पड़ जाते हैं। इन्द्रियो के वशीभूत होकर वे स्वाद मे आसक्त हो जाते हैं और स्वीकृत महाव्रतो को भंग कर देते हैं । इर्यादि समितियो के पालन करने मे उनकी रुचि नही रहती । लबे समय से मुण्डित होकर भी वे थके हुए राही की तरह तप और नियम रूपी मोक्षमार्ग से भ्रष्ट हो जाते हैं । जिस प्रकार खाली-मुट्ठी और खोटा-सिक्का किसी काम का नही होता और काँच का टुकड़ा भी रत्न के गाहक के लिए नि सार होकर फेंकने योग्य है, उसी प्रकार चारित्रहीन वेशधारी साधु भी त्यागनीय है, क्योकि वे वीर