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सम्यक्त्व विमर्श
साध समाज,' प्रमाणपत्र देने की व्यवस्था करने और राज्य की सहायता प्राप्त करने मे प्रयत्नशील है।
अजैन साधुओ का उद्देश्य और लक्ष भिन्न होने से हम उन्हे सम्यग्दृष्टि नहीं मानते, और असंयत अविरत एवं अप्रत्याख्यानी मानते है, क्योकि दृष्टिविष, प्राचार को भी दूषित कर देता है । दूषित विचार, चारित्र को बिगाड देता है । इसीलिए उग्र और विशुद्ध क्रिया होते हुए भी दृष्टि-विकार के कारण आगमकारो ने उनमे पाचो क्रिया मानी है। उनका त्याग, मोक्ष का कारणभूत नही होकर, संसार का ही कारण होता है। इसलिए उन्हे "अप्रत्याख्यानी" क्रिया लगना स्वीकार किया है (भगवती १-२) तथा उसकी समस्त साधना, जिनाज्ञा के बाहर होकर आराधना से वंचित माना है (उववाई)। तात्पर्य यह कि विना ध्येय शुद्धि के थोडी या अधिक, मंद अथवा उग्र साधना भी निष्फल होती है-बंध का ही कारण होती है। अतएव विपरीत श्रद्धा के कारण जैनेतर मान्यता युक्त साधना को जैन सिद्धात , साधुता मे स्वीकार कही करता।
जैन साधु कहाते हुए भी जिनकी साधना दूषित है, जो साधुता के मूल ऐसे पाच महाव्रतो का सम्यग्रुप से पालन नहीं करते । जिनकी प्रवृत्ति मे स्थावर या त्रस जीवो की अहिंसा का विवेक नही है, जो प्रकट या अप्रकट रूप से प्रारंभ जनक कार्य करते और करवाते हैं, तथा आरंभ के कार्यों की अनुमोदना करते हैं, ऐसे कार्य यदि धर्म के नाम पर हो, या परोपकार अथवा लोक-सेवा के नाम पर हो, तो भी वे परमार्थ-सेवी-अना