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जीव को अजीव मानना
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का स्वरूप ठीक तरह से नही जानते। भिन्न भिन्न अनन्त प्राणियो मे कोई केवल एक जीव-ब्रह्म ही मानते हैं, कोई शरीर मे केवल अंगुष्ठ प्रमाण जीव मानते हैं और कोई यव प्रमाण । यो अनेक प्रकार से जीव के अस्तित्व के विषय मे अज्ञान फैल रहा है।
सूयगड़ाग सूत्र के आर्द्रकीय अध्ययन मे एक ऐसे मत का वर्णन है, जो भावना के बहाने से आत्म-वंचना करते हए कहता था कि 'यदि मनुष्य मे 'खलपिंड' और बालक मे 'तुम्बी फल' की भावना करके उनको मार कर मास-भक्षण किया जाय, तो हत्या का पाप नही लगता।' इस प्रकार जीव के जीवत्व से (केवल आत्मवंचना पूर्वक) इन्कार करके उसमें अजीव की कल्पना करनेवाला मत भी संसार में है।
जीव तत्त्व को नही माननेवाले अथवा गलत रूप से माननेवाले सम्यग्दृष्टि नही है । सम्यग्दृष्टि वही है, जो जीव का अस्तित्व माने । उसे सदाकाल शाश्वत माने । कर्म का कर्ता और भोक्ता माने । उपयोग लक्षणवाला माने और उचित उपायो द्वारा मोक्ष प्राप्ति होना भी माने । यह जीव की ही शक्ति है कि वह उल्टे प्रयल से नरक निगोद मे भी चला जाय और सुलटे प्रयत्न से स्वर्ग और मोक्ष भी पाले।
दस लक्षणो से जीव परिणाम जाना जाता है । जैसे१ गति परिणाम-भिन्न भिन्न गतियो मे जन्म लेना । जन्म और मृत्यु जीव की ही होती है, अजीव की नही, २ इन्द्रिय परिणामजीव का शरीर के साथ इन्द्रिय सम्पन्न होना । चाहे एक इन्द्री