________________
अजीव को जीव मानना
१२५
है । क्योकि ये सब अजीव है-जड़ है। इनमे प्रात्मा के गुण नही है। पहले कभी प्रात्मा ने इनमे निवास किया था, किंतु वर्तमान मे तो ये जड ही हैं। इन्हे मिश्र-परिणत पुद्गल कह सकते है । ये मुर्दा शरीर की तरह अजीव ही हैं । इन वस्तुओ को जीव मानना और इनके साथ जीव का व्यवहार करना भी मिथ्यात्व है।
। कुछ लोग,अजीव मे जीव की बुद्धि करके उसे वंदनादि, करते हैं और उस अजीव के लिए अनेक प्रकार के प्रारम्भ करते हैं। कई अज्ञानी जीव, देहभाव मे इतने रचे रहते हैं कि उन्हें अपने आत्म-द्रव्य (अपनत्व) का ज्ञान ही नही होता । जड देह के दुर्बल, रोगी और विनाश से अपना विनाश मानते है। जैसे राजपुरोहित भृग, अपने विरक्त पुत्रो से कहता हैं कि
"जहा य अग्गी अरणी असंतो, खीरे घयं तेल्लमहातिलेसु। एमेव जाया सरीरंसि सत्ता, संमुच्छई नासइ नावचिठे ॥१८॥ उत्तरा० १४
-~-पुत्रो ! जिस प्रकार अरणि मे अग्नि, दूध मे घी और तिल मे तेल दिखाई नहीं देने पर भी संयोग से स्वत. उत्पन्न: होते हैं, उसी प्रकार शरीर मे जीव स्वत. उत्पन्न होता है और शरीर के विनाश से जीव का भी नाश हो जाता है। तात्पर्य यह है, कि आत्मा भी शरीर की उत्पत्ति के साथ, उसी मे उत्पन्न हो जाता है । यह शरीर की ही एक शक्ति है जो शरीर के साथ ही