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________________ १०४ सम्यक्त्व विमर्श किंतु जब वही शंका कुश्रद्धा को उत्पन्न कर देती है, तो फिर अनाचार बनकर मिथ्यात्व के गर्त मे ढकेल देती है। अतएव सम्यक्त्वी को सदैव सावधानी पूर्वक सम्यक्त्व की रक्षा करनी चाहिए। मिथ्यात्व वह भयानक बुराई है जो जीव को अनन्त जन्म मरण मे जोडकर दुख परम्परा को बढाती रहती है । इसके समान आत्मा का शत्रु और कोई नही है । यो तो अविरति, प्रमाद और शेष कषाये भी आत्मा के लिये दुख-दायक है, लेकिन सम्यक्त्व अवस्था मे इनका जोर उतना नही चल सकता। उस समय इनकी शक्ति मन्द रहती है । सम्यक्त्व रूपी शूर के प्रकट होते ही अनन्त भव-भ्रमण मे जोडने वाले मिथ्यात्व को या तो भूमिगत हो जाना पड़ता है, या नष्ट होना पड़ता है। मिथ्या तिमिर के लुप्त होते ही आत्मा, दीपक के प्रकाश में आ जाता है। उसे अपने शाश्वत घर का मार्ग स्पष्ट दिखाई देने लगता है । फिर अपनी शक्ति के अनुसार संसार अटवी को लाघकर अपने शाश्वत स्थान पर पहुँचने का प्रयत्न करता है। यदि इस दीपक की लौ जलती रही, उसमें सम्यग्ज्ञान का स्नेह मिलता रहा और मिथ्यात्व रूपी वायु से रक्षा होती रही, तो यह दीपक, मशाल बन जायगा और आगे चलकर सूर्यवत् बन जायगा । यदि मिथ्यात्व मोहनीय के झपाटे से सम्यक्त्व रूपी दीपक बुझ गया, तो फिर मिथ्यात्व के खड्डे मे गिरना होगा। मिथ्यात्व रूपी रोग महा-भयानक होता है । इसकी स्थिति तीन प्रकार की मानी गई है।
SR No.010468
Book TitleSamyaktva Vimarsh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanlal Doshi
PublisherAkhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year1966
Total Pages329
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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