________________
मिथ्यात्व
१०३
लिए तर्क वितर्क भले हो, किंतु वह श्रद्धा को ठेस पहुँचाने वाले नही हो। इस बात का पूरा ध्यान रखना चाहिए । यदि कुतर्क जाल में फंसे, तो फिर मिथ्यात्व मे ही स्थान होता है। शकादि अतिचारो से तो सम्यक्त्व मे मलिनता आती है, वह नष्ट नही होती, किंतु जब जिनेश्वरो या उनके बताये हुए तत्त्वो के विपरीत किसो एक भी विषय मे निश्चित विचार हो जाता है, तो उसकी स्थिति फिर मिथ्यात्व मे ही होती है । जिस प्रकार श्रमणो की साधुता अखड मोती के समान है, उसी प्रकार सम्यक्त्व भी अखड मोती के समान है। मोती, यदि किसी भी ओर से किंचित् भी टूट जाय, तो वह श्रृगार के काम मे नही आता, किंतु अंगार मे रख कर भस्म (मुक्ता भस्म) करने के काम में आता है। सम्यक्त्व सोने की वह डली नही, जो जितना चाहो, उतना ले लो और बाकी छोड दो। श्री प्रज्ञापना सूत्र के २२ वे पद मे लिखा है कि 'मिथ्यात्व का त्याग सभी द्रव्यो से होता है।' जब सभी द्रव्यो मे मिथ्यात्व छूटेगा, तभी सम्यक्त्व होगी। जो तत्त्व के किसी अंश मे श्रद्धालु है, वह जिनेश्वरो के केवलज्ञान मे अविश्वासी है और केवलज्ञान मे अविश्वासी है, वह जिनेश्वरो मे ही अविश्वासी है। जिनेश्वरो मे अविश्वासी होने वाला जैनी हो ही नही सकता । जिनेन्द्र प्ररूपित किसी एक वस्तु या उस वस्तु के किसी अंश पर अश्रद्धा होना, और जिनेश्वरो पर अश्रद्धा होना दोनो बराबर ही है।
जब जिज्ञासा अपनी सीमा से आगे निकल कर शंका ___ का रूप ग्रहण करती है, तब सम्यक्त्व मे अतिचार लगता है,